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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
का प्रमुख उद्देश्य धन, पुत्र, परिवार की आसक्ति को समाप्त कर आत्म-साधना की दिशा में आगे बढ़ने का संदेश देती है ।
६ संसार भावना-संसार की दुःखमयता का विचार करना संसार भावना है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है, 'जन्म दुःखमय है, बुढ़ापा दुःखमय है, रोग और मरण भी दुःखमय है, यह सम्पूर्ण संसार दुःखमय है जिसमें प्राणी क्लेश को प्राप्त हो रहे हैं।' यह लोक मृत्यु से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात-दिन रूपी शस्त्र धारा से त्रुटित कहा गया है ।२ .
बौद्ध परम्परा में संसार भावना-बुद्ध का वचन है कि जैसे मनुष्य पानी के बुलबुले को देखता है, और जैसे वह मृगमरीचिका को देखता है वैसे वह इस संसार को देखे । इस प्रकार देखनेवाले को यमराज नहीं देखता। यह हँसना कैसा और यह आनन्द कैसा, जब चारों तरफ बराबर आग लगी हुई है ? अंधकार से घिरे हुए तुम लोग प्रकाश को क्यों नहीं खोजते हो ?
महाभारत में संसार भावना-महाभारत में भीष्म पितामह ने कहा है कि वत्स, जब धन नष्ट हो जाय अथवा स्त्री, पुत्र या पिता की मृत्यु हो जाय, तब यह संसार कैसा दुःखमय है यह सोचकर मनुष्य शोक को दूर करने वाले शम-दम आदि साधनों का अनुष्ठान फरें।" यह सम्पूर्ण जगत् मृत्यु के द्वारा मारा जा रहा है। बुढ़ापे ने इसे चारों ओर से घेर रखा है और ये दिन-रात प्राणियों की आयु का अपहरण करके व्यतीत हो रहे हैं, इस बात को आप समझते क्यों नहीं हैं ?६ _इस दुःखपूर्ण स्थिति को देखकर संसार के आवागमन से मुक्त होने का प्रयास करना ही इस भावना का सार है । लोक की दुःखमयता मनुष्य को दुःखद परिस्थिति में भी धैर्य प्रदान करती है । जब साधक विचारपूर्वक संसार में व्याप्त दुःख और कष्टों के विकराल स्वरूप को देखता है, तो अपेक्षाकृत रूप में उसे अपना दुःख कम दिखाई देता है । इस प्रकार उसे एक प्रकार का आत्म-संतोष और धैर्य मिल जाता है। दूसरे जरा और मृत्यु से घिरे हुए संसार का स्वरूप साधक को 'भविष्य में धर्माचरण करेंगे' ऐसे मिथ्याविश्वास छुड़ाकर सदैव ही धर्म-साधना में तत्पर रहने का संदेश देता है । महाभारत में कहा गया है कि 'जिस रात के बीतने पर मनुष्य कोई शुभ कर्म न करे, उस दिन को विद्वान् पुरुष व्यर्थ ही गया समझे, कल किया जानेवाला काम आज ही
१. उत्तराध्ययन, १९।१६ । ३. धम्मपद, १७० । ५. महाभारत, शांतिपर्व, १७४।७।
२. वही, १४।२३ । ४. वही, १४६ । ६. वही, १७५।९।
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