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जैन आचार के सामान्य नियम
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पूरा कर लेना चाहिए। जिसे सायंकाल में करना है, उसे प्रातःकाल में ही कर लेना चाहिए, क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम अभी पूरा हुआ या नहीं।' उत्तराध्ययनसूत्र में भी यही कहा गया है कि जो रात्रियां बीत रही हैं, वे वापस नहीं आती, धर्म करनेवालों की वे रात्रियाँ सफल ही होती हैं और अधर्म करनेवाली की वे रात्रियाँ व्यर्थ जाती हैं । जिसकी मृत्यु से मित्रता हो, जिसमें मृत्यु से भागकर छूटने की शक्ति हो अथवा जो यह भी जानता हो कि मैं नहीं मरूँगा, वह मनुष्य कल की इच्छा कर सकता है ।२ संसार की दुःखमयता का यह चिन्तन ही बौद्ध दर्शन का प्रथम आर्य सत्य (सर्वदुःखम्) है।
७. आस्रव भावना- बंधन के कारणों पर विचार करना आजव भावना है । कर्मबन्ध का मूल कारण आस्रव है और आस्रव कायिक-वाचिक, और मानसिक प्रवृत्ति, राग-द्वेष के भाव, कषाय, विषय-भोग, प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व और आर्तरौद्र ध्यान है। साधक इस सम्बन्ध में विचार करे कि अशुभ वृत्तियाँ एवं आचरण आत्मा को किस प्रकार विकार-युक्त बना देते हैं । आस्रव के कारण का विचार और उन कारणों के निरोध का प्रयास ही आस्रव भावना का मुख्य लक्ष्य है । आस्रव भावना का साधक पच्चीस मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ उपकषाय, बारह अव्रत, पांच प्रमाद, पंद्रह योग आदि आस्रव के कारणों के स्वरूप का विचार करता हुआ उनसे दूर रहने का प्रयत्न करता है ।
बौद्ध परम्परा में आस्रव भावना :-आस्रव भावना के सम्बन्ध में बुद्ध का कहना है कि जो कर्तव्य को बिना किये छोड़ देते हैं और अकर्तव्य करते हैं, ऐसे उद्धत तथा प्रमत्त लोगों के आस्रव बढ़ जाते हैं । परन्तु जिनकी चेतना शरीर के प्रति जागरूक रहती है, जो अकरणीय आचरण नहीं करते और निरन्तर सदाचरण करते हैं, ऐसे स्मृतिमान् और सचेत मनुष्यों के आस्रव नष्ट हो जाते हैं। आस्रव भावना की तुलना बौद्ध आचार दर्शन के द्वितीय आर्यसत्य दुःख के कारण के विचार से की जा सकती है ।
८. संवर भावना-संवर भावना में आस्रव के विपरीत कर्मों के आगमन को रोकने के उपायों पर विचार किया जाता है । संवर-भावना आस्रव भावना का विधायक पक्ष है। आचार्य हेमचन्द्र का कथन है कि जो-जो आस्रव जिस-जिस उपाय से रोका जा सके, उसे रोकने के लिए विवेकवान् पुरुष उस-उस उपाय को काम में लाये । संवर की प्राप्ति के लिए उद्योग करनेवाले पुरुष को चाहिए कि वह क्षमा से क्रोध को, नम्रता से मान को, सरलता से माया को और निस्पृहता से लोभ को रोके । अखण्ड संयमसाधना के द्वारा इन्द्रियों की स्वच्छंद प्रवृत्ति से बलवान् बनने वाले, विष के समान
१. महाभारत, शांतिपर्व, १७५।१२,१५। ३. योगशास्त्र, ४।७४,७८ ।
२. उत्तराध्ययन, १४।२४,२७ । ४. धम्मपद, २९२-२९३ ।
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