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जैन आचार के सामान्य नियम
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मोह-ममता कर सकता है ? यह शरीर हड्डियों का घर है, जिसे मांस और रुधिर से लेपा गया है, जिसमें बुढ़ापा, मृत्यु, अभिमान और मोह निवास करते हैं।'
महाभारत में अशुचि भावना-आचार्य शंकर ने भी चर्पटपंजरिकास्तोत्र में कहा है, "यह देह मांस एवं वसादि विकारों का संग्रह है, हे मन ! तू बार-बार विचार कर।"२ महाभारत के अनुसार यह शरीर जरामरण एवं व्याधि के कारण होने वाले दुःखों से युक्त है, फिर ( बिना आत्म-साधना के ) निश्चिन्त होकर कैसे बैठा जा सकता है । इस प्रकार बौद्ध एवं वेदान्त मतों में शरीर को अशुचिता एवं अशाश्वतता का विचार देहासक्ति को कम कर विरागता की वृत्ति के उदय के लिए किया गया है। तत्त्वार्थसत्र के अनुसार भी काय-स्वभाव का चिन्तन संवेग और वैराग्य के लिए है।
५. अशरण भावना-अशरण भावना का तात्पर्य यह है कि विकराल मृत्यु के पाश से कोई भी बचाने में समर्थ नहीं है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि जिस प्रकार मृग को सिंह पकड़कर ले जाता है उसी प्रकार अन्त समय में मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है। उस समय माता, पिता, भाई आदि कोई भी नहीं बचा सकते ।।
बौद्ध परम्परा में अशरण भावना-धम्मपद में भी यही बात कही गयी है। पुत्र तथा पशुओं में आसक्त मन वाले मनुष्य को लेकर मृत्यु इस तरह चली जाती है, जैसे सोये हुए गांव को महान् जल-प्रवाह बहा ले जाता है । मृत्यु से पकड़े हुए मनुष्य की रक्षा के लिए न पुत्र, न पिता, न बन्धु आ सकते हैं। किसी सम्बन्धी से रक्षा नहीं हो सकती। इस तरह मृत्यु के वश में सबको जानकर सम्यक् अनुष्ठान करने वाला बुद्धिमान पुरुष शीघ्र ही निर्वाण के मार्ग को साफ करे । अंगुत्तरनिकाय में कहा है कि अल्प-आयु जीवन को (खींचकर) ले जाती है । बुढ़ापे द्वारा (खींचकर) ले जाये जाने वाले के लिए कोई शरण स्थान नहीं है । मृत्यु के इस भय-भीत स्वरूप को देखकर मनुष्य को चाहिए कि वह सुखदायक पुण्य कर्म करे ।
महाभारत में अशरण भावना-महाभारत में भी अशरणता का वर्णन उपलब्ध है । जैसे सोये हुए मृग को बाघ उठा ले जाता है, उसी प्रकार पुत्र और पशुओं से सम्पन्न एवं उन्हीं में मन को फंसाये रखने वाले मनुष्य को एक दिन मृत्यु आकर उठा ले जाती है । जब तक मनुष्य भोगों से तृप्त नहीं होता, संग्रह ही करता रहता है, तभी उसे मौत आकर ले जाती है वैसे ही, जैसे व्याघ्र पशु को ले जाता है। अशरण भावना १. धम्मपद, १४८-१५० ।
२. चर्पटपंजरिका स्तोत्र, ११ । ३. महाभारत, शांतिपर्व, १७५।२३ । ४. तत्त्वार्थसूत्र, ७७ । ५. उत्तराध्ययन, १३।२२ ।
६. धम्मपद २८७-२८९ । ७. अंगुत्तरनिकाय, ३१५१ ।
८. महाभारत, शांतिपर्व, १७५।१८,१९ ।
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