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________________ ४२६ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जाना अपेक्षित नहीं है । अन्यत्व भावना का मुख्य लक्ष्य साधक की बाह्य आसक्ति को कम करना है। एक आचार्य ने कहा है कि 'हे आत्मन्, तू प्रति समय ऐसा विचार कर कि पुत्र, मित्र, स्त्री, परिवार, सांसारिक पदार्थ और वैभव तुझसे भिन्न हैं ।" जो आत्मा अपने को शरीर आदि से भिन्न देखता है, उसे शोकरूप शल्य तनिक भी दुःख नहीं देते, क्योंकि शोक का कारण ममता है। जिसे कोई ममत्व नहीं उसे कोई दुःख भी नहीं। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'माता-पिता, बन्धु-बांधव एवं पुत्र आदि सभी इष्ट जन मेरे नहीं हैं। यह आत्मा उनसे सम्बन्धित नहीं है । वे सभी अपनेअपने कर्मवशात् संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं । गीता एवं महाभारत में अन्यत्व भावना-महाभारत में कहा गया है कि पुत्र-पौत्र, जाति-बांधव सभी संयोगवश मिल जाते हैं, उनके प्रति कभी आसक्ति नहीं बढ़ाना चाहिए, क्योंकि उनसे विछोह होना निश्चित है। गीता के १४वें अध्याय में क्षेत्रक्षेत्र के माध्यम से अन्यत्व भावना का सुन्दर बोध कराया गया है। ४. अशुचि-भावना-शरीर-सम्बन्धी मोह को नष्ट करने के लिए जैन विचारकों ने अशुचि भावना का विधान किया है । अशुचि भावना में प्रमुख रूप से साधक यह विचार करता है कि जिस देह के रूप और सौन्दर्य का हमें अभिमान है, जिस पर हम ममत्व करते हैं वह अशुचि का भण्डार है । आचार्य कुन्दकुन्द इस देह की अशुचिता का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि यह शरीर कृमियों से भरा हुआ, दुगंधित, बीभत्स रूप वाला, मल और मूत्र से पूरित, स्खलन एवं गलन स्वभाव से युक्त, रुधिर, मांस, मज्जा, अस्थि आदि अनेक अपवित्र वस्तुओं से बना हुआ है । अस्थियों पर मांस से लिप्त एवं त्वचा से आच्छादित सदाकाल अपावन है ।४ उत्तराध्ययनसूत्र में भी शरीर की अशुचिता एवं अशाश्वतता का निर्देश ( १९।१३-१५) है। बौद्ध परम्परा में अशुचि भावना-शरीर की अशुचिता का वर्णन बौद्ध ग्रन्थों में भी है । विशुद्धि-मार्ग में कहा गया है, “यदि इस शरीर के अन्दर का भाग बाहर आ जाए तो अवश्य ही डण्डा लेकर कौवों और कुत्तों को रोकना पड़े।” धम्मपद में भी आचार्य कुन्दकुन्द की शैली में शरीर की अशुचिता के बारे में कहा है, "यह शरीर जराजीर्ण रोगों का घर है, क्षण-भंगुर है, दुर्गन्ध का ढेर है और किसी समय खण्ड-खण्ड हो जाएगा, क्योंकि जीवन का अन्त ही मरण है । इन कबूतर के रंगवाली हड्डियों के जाल को देखकर जो शरद् ऋतु में फेंकी हुई अपथ्य लौकी के समान है-कौन उनमें १. सूक्ति -संग्रह। ३. महाभारत, शांतिपर्व। ५. विसुद्धिमग्ग, ६।९३ । २. कुन्दकुन्दाचार्य की सूक्तियाँ । ४. कुन्दकुन्दाचार्य की सूक्तियाँ (अखिल विश्व जैन मिरीन अलीगंज एटा से प्रकाशित ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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