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________________ जैन आचार के सामान्य नियम ४२५ चार में प्रवृत्त आत्मा अपना जितना अनिष्ट करती है उतना अनर्थ गला काटनेवाला शत्रु भी नहीं करता। ऐसा दयाविहीन पुरुष मृत्यु के मुख में जाने पर अपने दुराचार को जानेगा और फिर पश्चात्ताप करेगा ।" बौद्ध परम्परा में एकत्व भावना - बौद्ध धर्म में भी एकत्व भावना का विचार उपलब्ध है । धम्मपद में कहा गया है कि अपने से किया हुआ, अपने से उत्पन्न हुआ, पाप ही दुर्बुद्धि मनुष्य को विदीर्ण कर देता है, जैसे वज्र पत्थर की मणि को काट देता है । अपने पाप का फल मनुष्य स्वयं भोगता है । पाप न करने पर वह स्वयं शुद्ध रहता है । प्रत्येक पुरुष का शुद्ध अथवा अशुद्ध रहना उसी पर निर्भर है । कोई किसी दूसरे को शुद्ध नहीं कर सकता 13 कि मनुष्य को चाहिए जीवात्मा आप ही तो गीता एवं महाभारत में एकत्व भावना - गीता में कहा है कि वह अपनी आत्मा को अधोगति में न पहुँचाए, क्योंकि वह अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है अर्थात् और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है । जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, वह आप ही अपना मित्र है और जिसके द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में वर्तता है । महाभारत में भी एकत्व भावना के संबंध में सुन्दर विचार उपलब्ध है । कहा गया है कि मैं तो अकेला हूँ। न तो दूसरा कोई मेरा है और न मैं किसी दूसरे का हूँ। मैं उस पुरुष को नहीं देखता, जिसका मैं होऊँ तथा उसको भी नहीं देखता, जो मेरा हो । यह शरीर भी मेरा नहीं अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है । ये सब वस्तुएँ जैसे मेरी हैं वैसे ही दूसरों की भी हैं । ऐसा सोचकर इनके लिए मेरे मन में कोई व्यथा नहीं होती, ऐसी बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक । मनुष्य स्त्री-पुत्र आदि कुटुम्ब के लिए चोरी आदि पाप कर्मों का संग्रह करता है, किन्तु इस लोक और परलोक में उसे अकेले ही उन समस्त कर्मों का क्लेशमय फल भोगना पड़ता है । " ३. अन्यत्वभावना -- जगत् के समस्त पदार्थों से अपने को अलग मानना और उस भिन्नता का बार-बार विचार करना ही अन्यत्व भावना है । अन्यत्व भावना का मुख्य लक्ष्य भेद - विज्ञान के द्वारा आत्मानात्म का विवेक उत्पन्न कर देना है । बौद्ध दर्शन में अन्यत्व भावना का सुन्दर चित्रण नैरात्म्य दर्शन के रूप में हुआ है । इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन सम्यक्ज्ञान के प्रसंग में भेद विज्ञान सम्बन्धी चर्चा में हो चुका है, अतः यहां विस्तार में १. उत्तराध्ययन, २०३७,४८ । ३. वही, १६५ । ५. महाभारत, शान्तिपर्व, १७४ १४,२५ । Jain Education International २. धम्मपद, १६१ । ४. गीता, ६।५, ६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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