________________
४२४
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
भंगुर है । लक्ष्मी संध्याकालीन लालिमा के समान अनित्य है । यह जीवन भी कमल-पत्र पर पड़े हुए ओस बिन्दु के समान अल्प समय में ही समाप्त हो जानेवाला है । आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में समग्र सांसारिक वैभव, इन्द्रियाँ, रूप, यौवन, बल, आरोग्य सभी इन्द्रधनुष के समान क्षणिक है, संयोगजन्य है और इसलिए व्यक्ति को समग्र सांसारिक उपलब्धियों की अनित्यता एवं संयोगजन्यता को समझकर उनके प्रति आसक्त नहीं रहना चाहिए ।"
૨
बौद्ध एवं वैदिक परम्पराओं में अनित्य भावना - बुद्ध ने अपने उपासकों को अनेक प्रकार से अनित्यता का बोध कराया है । संयुत्तनिकाय में अनित्य वर्ग में भगवान् बुद्ध कहते हैं - भिक्षुओ, चक्षु अनित्य है, श्रोत्र अनित्य है, घाण अनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य है, मन अनित्य है जो अनित्य है वह दुःख है । धम्मपद में कहा है कि संसार के सब पदार्थ अनित्य हैं, इस तरह जब बुद्धिमान् पुरुष जान जाता है, तब वह दुःख नहीं पाता । यही मार्ग विशुद्धि का है । महाभारत में कहा है कि जीवन अनित्य है इसलिए युवा अवस्था में ही धर्म का आचरण कर लेना चाहिए ।
।
२. एकत्वभावना -- प्राणी अकेला जन्म लेता है और अकेला ही मरता है । अपने शुभाशुभ कर्मा को भी वह अकेला ही भोगता है ।" मृत्यु के समय समस्त सांसारिक धन-वैभव को तथा कुटुम्ब को छोड़कर व्यक्ति अकेला ही प्रयाण करता है । एक संस्कृत कवि ने कहा है कि धन भूमि में, पशु पशुशाला में रह जाते हैं, स्त्री गृहद्वार तक, स्नेही जन श्मशान तक और देह चिता तक रहती है । प्राणी अकेला ही अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ परलोक गमन करता है एक जैनाचार्य कहते हैं कि मैं अकेला हूँ, मेरा और कोई नहीं, मैं भी किसी का नहीं इस प्रकार अदीन मन होकर आत्मा को अनुशासित करे । इस प्रकार एकत्वभावना एक और साधक के आत्मविश्वास को जागृत करती है और पराङ्मुखता को समाप्त करती है तथा दूसरी ओर यह भी बोध कराती है कि जिन
।
६
कुटुम्ब परिवार के लोगों के लिए वह पाप कर्म का संचय करता है, वे सभी उसके सहायक नहीं हो सकते । इस प्रकार एकत्वभावना का मूल लक्ष्य व्यक्ति को यह बताना है है कि पुरुषार्थ हो उसका एकमात्र सहायक है, अपना हित और अहित दोनों ही उसके अपने हाथ में है । उत्तराध्ययनसूत्र में इसका अत्यन्त ही सुन्दर विवेचन उपलब्ध है | उसमें कहा है कि आत्मा ही सुखों और दुःखों का कर्ता है और यही कर्म क्षय करने वाला है । श्रेष्ठ आचार वाली आत्मा मित्र और दुराचारवाली आत्मा शत्रु है । दुरा
१. भावपाहुड |
३. धम्मपद, २७७ ।
५. देखिए - कुन्दकुन्दाचार्य की सूक्तियाँ । ६. सूक्ति संग्रह |
Jain Education International
२. संयुत्तनिकाय, ३४।१।१।१ ।
४. महाभारत, शांतिपर्व, १७५।१६ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org