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________________ जैन आचार के सामान्य नियम ४२३ शील शील का सम्बन्ध सदाचरण से है । शील के सम्बन्ध में सामान्य रूप से विवेचना सम्यक् -चारित्र नामक अध्याय में और सदाचरण के विभिन्न नियमों के रूप में गृहस्थ धर्म और श्रमण आचार-पद्धति में की गयी है । तप तप नैतिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। अपने व्यापक अर्थों में तप नैतिक आचरण के सभी पक्षों का समावेश कर लेता है । सामान्य रूप से तप की विवेचना 'सम्यक्-तप' नामक अध्याय में की गयी है। भावना (अनुप्रेक्षा) जैन परम्परा में गृहस्थ और श्रमण दोनों उपासकों के लिए कुछ चिन्तन करने का विधान है। इस चिन्तन को अनुप्रेक्षा या भावना कहा गया है । जैन दर्शन में भावना मन का वह भावात्मक पहलू है, जो साधक को उसकी वस्तु-स्थिति का बोध कराता है। जैन परम्परा में भावनाओं का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि दान, शील, तप एवं भावना के भेद से धर्म चार प्रकार का है, किन्तु इन चतुर्विध धर्मों में भावना ही महा-प्रभावी है । अर्थात् संसार में जितने भी सुकृत्य है, धर्म हैं, उनमें केवल भावना ही प्रधान है, भावनाविहीन धर्म शून्य है । वास्तव में भावना ही परमार्थस्वरूप है। भाव ही धर्म का साधक कहा गया है और तीर्थंकरों ने भी भाव को ही सम्यक्त्व का मूलमंत्र बताया है। कोई भी पुरुष कितना ही दान करे, चाहे समग्र जिन-प्रवचन का अध्ययन कर डाले, उग्र से उग्र तपस्या करे, भूमि पर शयन करे, दीर्घकाल तक मुनिधर्म का पालन करे, लेकिन यदि उसके मानस में भावनाओं की उद्भावना नहीं होती तो उसकी समस्त क्रियाएँ उसी प्रकार निष्फल होती हैं, जिस प्रकार से धान्य के छिलके का बोना निष्फल है । आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में कहते हैं कि चाहे व्यक्ति श्रमण हो अथवा गृहस्थ, भाव ही उसके विकास में कारणभूत है। भावरहित अध्ययन से और श्रवण से क्या लाभ ? जैन आचार्यों ने भावनाओं को मोक्ष का सोपान कहा है। जैन धर्म में भावनाएँ या अनुप्रेक्षाएँ १२ कही गयी हैं-१. अनित्य, २. अशरण, ३. एकत्व, ४. अन्यत्व, ५. संसार, ६. लोक, ७. अशुचि, ८. आस्रव, ९. संवर, १०. निर्जरा, ११. धर्म और १२. बोधि । १. अनित्य-भावना-संसार के प्रत्येक पदार्थ को अनित्य एवं नाशवान् मानना अनित्य भावना है। धन, सम्पत्ति, कुटुम्ब, परिवार, अधिकार, वैभव सभी कुछ क्षण-1 १. प्राकृत सूक्ति सरोज, भावनाधिकार, ३, १६ । ३. भावपाहुड, ६६ । २. सुक्ति संग्रह, ४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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