________________
४२२
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
है । दाता का मनोभाव, दान करने की प्रणाली, दी जानेवाली वस्तु और दान का पात्र इन चारों बातों के आधार पर ही दान का समुचित मूल्यांकन सम्भव है । गीता में भी दान के सम्बन्ध में कहा गया है कि वही दान सात्त्विक है जो कर्तव्यबुद्धि से दिया जाता है और जिस में देश, काल और पात्र का विवेक रखा जाता है तथा जिसमें प्रत्युपकार की कोई भावना नहीं होती। इसके विपरीत अयोग्य को फल की आकांक्षा से जो दान दिया जाता है वह राजस दान है। जिस दान में देश, काल व पात्र का विवेक नहीं है तथा जो दान अवहेलना पूर्वक दिया जाता है, वह तामस दान है ।' वैसे जहाँ तक दान के मूल्य की बात है जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में उसे स्वीकार किया गया है ।
भारतीय परम्परा में दान पारस्परिक सहयोग का सूचक है। समाज के विभिन्न घटकों की विशेष क्षेत्रों में योग्यताएं होती हैं, अतः यह आवश्यक है कि उनकी योग्यताओं का लाभ समाज के दूसरे घटकों को भी मिलता रहे। इसीलिए भारतीय परम्परा में दान की योजना है। वह जिसके पास बुद्धि है, अपनी बुद्धि का वितरण करे, जिसके पास शक्ति है वह दूसरों के रक्षण का कार्य करे, इसी प्रकार जिसके पास धन है वह दूसरों को जीविका के साधन प्रदान करे। इस प्रकार दान सही अर्थ में पारस्परिक सहयोग का सूचक है । वर्तमान युग में सहयोग के मुख्य चार क्षेत्र माने जाते हैं
१. जीविका २. शिक्षा ३. स्वास्थ्य ४. अभय या सुरक्षा सहयोग के इन चार क्षेत्रों को ही प्राचीन काल में दान चतुष्टयी कहा जाता था : १. जीविका
१. आहारदान २. शिक्षा
२. ज्ञानदान (शास्त्रदान) ३. स्वास्थ्य
३. औषध-दान ४. अभय या सुरक्षा
४. अभय-दान दान सामाजिक नैतिकता का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। जबकि तप, शील और भाव तीनों ही वैयक्तिक नैतिकता से संबंधित हैं, यद्यपि तप में वैयावृत्य, (सेवा) के रूप में एक सामाजिक पक्ष भी निहित है।
२. गीता, १७१२०-२२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org