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जैन आचार के सामान्य नियम
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पर अनुग्रह नहीं करता है, वरन् जिसका जो अधिकार है, वही देता है । संविभाग शब्द का मूलाश्य यही है कि व्यक्ति पर समाज का कुछ अधिकार है अथवा समाज के प्रति उसका कुछ दायित्व है । दान के रूप में वह अपने उस दायित्व का निर्वाह करता है, किसी पर अनुग्रह नहीं । 'दान' शब्द का प्रयोग संविभाग शब्द के बाद में होने लगा है। इसका अर्थ यह है कि प्राचीन समाज व्यवस्था में अपने अधिकार में रही हुई वस्तु पर भी व्यक्ति के साथ समाज का भी अधिकार माना जाता था। संविभाग शब्द यही बतलाता है कि व्यक्ति के पास जो कुछ है वह उसका अकेला स्वामी नहीं है, वरन् समाज के दूसरे सदस्यों का भी उस पर अधिकार है । अतः समाज के दूसरे सदस्यों के हित में उस सम्पत्ति के एक भाग को उत्सर्ग करना ही संविभाग है । वस्तुतः संविभाग शब्द की मूल ध्वनि दान शब्द में नहीं मिलती। प्राचीन ऋषियों के द्वारा इस शब्द का प्रयोग उनकी गहन सामाजिक दृष्टि का ही परिचायक है। उन्होंने न केवल विभाग शब्द का उपयोग किया, वरन् उसके आगे सम् उपसर्ग का भी प्रयोग किया, सम् उपसर्ग इस बात का परिचायक है कि विभाग समान रूप से होना चाहिए । वर्तमान समाजवादी व्यवस्था की जो मूल दृष्टि है उसका पूर्व परिचय हमें इस संविभाग शब्द को योजना में मिल जाता है। प्राचीन युग में इस संविभाग शब्द का प्रयोग यही बताता है कि दान अनुग्रह नहीं, वरन् एक सामाजिक अधिकार था ।
दान के प्रकार-जैन-परम्परा में दान चार प्रकार का कहा गया है-(१) ज्ञान दान (२) अभय दान (३) धर्मोपकरण दान और (४) अनुकम्पा दान। इन चारों दानों में ज्ञानदान और अभयदान मुनि के लिए विशेष रूप से पालनीय है। धर्मोपकरण दान गृहस्थ के लिए विशेष रूप से आचरणीय है। यद्यपि गृहस्थ उपासक आंशिक रूप में अभयदान और ज्ञानदान भी दे सकता है। जहां तक मुनि-जीवन का प्रश्न है, वह तो स्वयं भिक्षुक है, अतः वह मात्र ज्ञानदान और अभयदान ही करता है, धर्मोपकरणदान और अनुकम्पा दान नहीं । ज्ञानदान का अर्थ है विद्या पढ़ाना और इसी प्रकार अभयदान का अर्थ है स्वयं का आचरण इस प्रकार से रखना कि दूसरों को भय न हो। पूर्ण अहिंसा का पालन ही अभयदान का सर्वोच्च आदर्श है । धर्मोपकरणदान का अर्थ है मुनि या भिक्षुक को उसकी आवश्यकताओं की वस्तुएँ प्रदान करना । अनुकम्पादान का तात्पर्य है दीन, दुःखी, अनाथ, रोगी या संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना । गृहस्थ मुनि को भिक्षा देना और दीन-दुःखियों की सहायता करना गृहस्थ के आवश्यक कर्तव्य हैं । जैन-परम्परा में दान के सम्बन्ध में देश, काल और पात्र का भी विचार किया गया है । तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार दान की विधि, देय वस्तु, दाता और पात्र की विशेषता से ही दान की विशेषता है । दान के सम्बन्ध में इन चारों ही बातों का विवेक रखना आवश्यक
१. तत्त्वार्थसूत्र, ७।३४ ।
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