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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भौतिक वस्तुओं की कामना ही नहीं, वरन् यश, कीर्ति, पूजा, सम्मान आदि की लालसा भी मनुष्य को अधःपतन की ओर ले जाती है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार जो पूजा, प्रतिष्ठा, मान और सम्मान की कामना करते हैं, वे अनेक छद्म पापों का सृजन करते हैं ।' कामना चाहे भौतिक वस्तुओं की हो या मान-सम्मान आदि अभौतिक तत्त्वों की, वह एक बोझ है जिससे मुक्त होना आवश्यक है। सूत्रों में लाघव के साथ ही साथ मुक्ति (मुत्ती) शब्द का प्रयोग भी हुआ है । सद्गुण के रूप में मुक्ति का अर्थ दुश्चिन्ताओं, कामनाओं और वासनाओं से मुक्त मनःस्थिति ही है। उपलक्षण से मुत्ती का अर्थ संतोष भी होता है । सन्तोष की वृत्ति आवश्यक सद्गुण है। उसके अभाव में जीवन की शान्ति चौपट हो जाती है । बौद्ध धर्म और गीता की दृष्टि में निर्लोभता मनुष्य का आवश्यक सद्गुण है । बुद्ध का कथन है कि 'सन्तोष ही परम धन है ।' २ गीता में कृष्ण कहते हैं, 'सन्तुष्ट व्यक्ति मेरा प्रिय है।'3 ८. ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन महावतों एवं अणुव्रतों के सन्दर्भ में किया गया है। श्रमण के लिए समस्त प्रकार के मैथुन का त्याग आवश्यक माना गया है । गृहस्थ उपासक के लिए स्वपत्नी-सन्तोष में ही ब्रह्मचर्य की मर्यादा स्थापित की गयी है। विषयासक्ति चित्त को कलुषित करती है, मानसिक शान्ति भंग करती है, एक पकार के मानसिक तनाव को उत्पन्न करती है और शारीरिक दृष्टि से रोग का कारण बनती है। इसलिए यह माना गया कि अपनी-अपनी मर्यादा के अनुकूल गृहस्थ और श्रमण को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए ।
बौद्ध परम्परा में ब्रह्मचर्य-बौद्ध परम्परा में भी ब्रह्मचर्य धर्म का महत्त्व स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। उसमें भी - मण साधक के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य और गृहस्थ साधक के लिए स्वपत्नी-संतोष की मर्यादाएं स्थापित की गयी हैं।
गीता में ब्रह्मचर्य-गीता में ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप कहा गया है।५ परमतत्त्व की उपलब्धि के लिए ब्रह्मचर्य को आवश्यक माना गया और यह बताया गया है कि जो ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर मेरी उपासना करता है, वह शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
१. दशवकालिक, ५।२।३७ । ३. गीता, १२।१४, १९ । ५. गीता, १७।१४।
२. धम्मपद, २०४ । ४. सुत्तनिपात, २६।२१ । ६. वही, ६।१४।
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