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जैन माचार के सामान्य नियम ७. अकिंचनता __ मूलाचार के अनुसार अकिंचनता का अर्थ परिग्रह का त्याग है । लोभ या आसक्तित्याग के भावनात्मक तथ्य को क्रियात्मक जीवन में उतारना आवश्यक है । अकिंचनता के द्वारा इसी अनासक्त जीवन का बाह्य स्वरूप प्रकट किया जाता है । संग्रहवृत्ति से बचना ही अकिंचनता का प्रमुख उद्देश्य है । दिगम्बर या जिनकल्पी मुनि की दृष्टि यही बताती है कि समग्र बाह्य परिग्रह का त्याग ही अकिंचनता की पूर्णता है । संत कबीरदास ने भी कहा है
उदर समाता अन्न लहे, तनहि समाता चीर ।
अधिकाहि संग्रह ना करे, ताको नाम फकीर ॥ अकिंचनता और बुद्ध-बौद्ध ग्रन्थ चूलनिदेशपालि में कहा है कि अकिंचनता और आसक्तिरहित होने से बढ़कर कोई शरणदाता दीप नहीं है ।' बुद्ध ने स्वयं अपने जीवन में अकिंचनता को स्वीकार किया था । उदायी भगवान् की प्रशंसा करते हुए कहता है कि भगवान् अल्पाहार करनेवाले हैं और अल्पाहार के गुण बताते हैं । वे कैसे भी चीवरों से सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं। जो भिक्षा मिलती है उससे सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं । निवास के लिए मिले हुए स्थान में सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं । एकान्त में रहते हैं और एकान्त के गुण बताते हैं । इन पाँच कारणों से भगवान् के श्रावक भगवान् का मान रखते हैं और उनके आश्रय में रहते हैं ।२
महाभारत में अकिंचनता-महाभारत में कहा है कि यदि तुम सब कुछ त्यागकर किसी वस्तु का संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र विचरते हुए सुख का ही अनुभव करोगे, क्योंकि जो अकिंचन होता है जिसके पास कुछ नहीं रहता है, वह सुख से सोता और जागता है। संसार में अकिंचनता ही सुख है । वही हितकारक, कल्याणकारी और निरापद है। आकिञ्चन्य व्यक्ति को किसी भी प्रकार के शत्रु का खटका नहीं है । अकिंचनता को लाघव भी कहा जा सकता है, लाघव का अर्थ है हलकापन । लोभ या आसक्ति आत्मा पर एक प्रकार का भार है । कामना या आसक्ति मन में तनाव उत्पन्न करती है, यह तनाव मन को बोझिल बनाता है। भूत और भविष्य की चिन्ताओं का भार मनुष्य व्यर्थ ही ढोया करता है । व्यक्ति जितने-जितने अंश में इनसे ऊपर उठकर अनासक्त बनता है उतनी ही मात्रा में मानसिक तनाव से बचकर प्रमोद का अनुभव करता है। निर्लोभ आत्मा को कर्म-आवरण से हल्का बनाता है। मन और चेतना के तनाव को समाप्त करता है । इसीलिए उसको लाघव कहा जाता है । १. चुल्लनिद्देशपालि, २।१०।६३ । २. मज्झिमनिकाय, ७७ देखिए-भगवान् बुद्ध, पृ० २८७ ।
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