________________
४१६
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
___ संयम और बौद्ध दृष्टिकोण-बुद्ध का कथन है कि प्राज्ञ एवं बुद्धिमान् भिक्षु के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है इन्द्रियों पर विजय, सन्तुष्टता तथा भिक्षु-अनुशासन में संयम से रहना।' शरीर, वाणी और मन का संयम उत्तम है। सर्वत्र संयम करना उत्तम है। जो सर्वत्र संयम करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है ।
गीता में संयम-गीता में कहा कि श्रद्धावान्, तत्पर और संयतेन्द्रिय ही ज्ञान प्राप्त करता है । जो संयमी है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है। योगी जन संयम रूप अग्नि में इन्द्रियों का हवन करते हैं।"
७. तप
तप जैन साधना का एक आवश्यक अंग है। जैन-परम्परा के अनुसार कर्मों की निर्जरा के लिए तपस्या आवश्यक मानी गयी है । तप के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक यथा स्थान विवेचन किया जा चुका है । ८. त्याग
अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करना और प्राप्त भोगों में विमुख होना त्याग है । नैतिक जीवन में त्याग आवश्यक है। बिना त्याग के नैतिकता नहीं टिकती । अतएव साधु के लिए त्यागधर्म का विधान किया गया है । त्याग से इन्द्रिय और मन के निरोध का अभ्यास किया जाता है । संयम के लिए त्याग आवश्यक है। सामान्य रूप से त्याग का अर्थ छोड़ना होता है अतएव साधुता तभी संभव है जब सुख-साधनों एवं गृह-परिवार का त्याग किया जाये । साधु-जीवन में भी जो कुछ उपलब्ध है या नियमानुसार ग्राह्य है उनमें से कुछ को नित्य छोड़ते रहना या त्याग करते रहना जरूरी है । गृहस्थ-जीवन के लिए भी त्याग आवश्यक है। गृहस्थ को न केवल अपनी वासनाओं और भोगों की इच्छा का त्याग करना होता है, वरन् अपनी सम्पत्ति एवं परिग्रह से भी दान के रूप में त्याग करते रहना आवश्यक है। इसलिए त्याग गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए ही आवश्यक है । त्याग का विस्तृत विवेचन षडावश्यकों प्रकरण में हो चुका है । त्याग से संग्रह-लालसा को नियंत्रित कर के सामाजिक हित साधा जा सकता है । वस्तुतः लोकमंगल के लिए त्याग-धर्म का पालन आवश्यक है । न केवल जैन-परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी त्याग-भावना पर बल दिया गया है । बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिरक्षित ने इस सम्बन्ध में काफी विस्तार से विवेचन किया है।
१. धम्मपद, ३७५ । ३. गीता २०६१ । ५. वही, ४।२९ ।
२. वही, ३६१ । ४. वही, ४२६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org