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________________ जैन आचार के सामान्य नियम ४१५ गीता का दृष्टिकोण - गीता में शौच की गणना दैवी सम्पदा, ब्रह्मकर्म एवं तप में की गई है' । आचार्य शंकर ने अपने गीता भाष्य में शौच का अर्थ प्रतिपक्ष भावना के द्वारा अन्तःकरण के रागादि मलों का दूर करना भी किया है, जो कि जैन परम्परा के शौच के अर्थ के निकट है । ५. सत्य सत्यधर्म से तात्पर्य है सत्यता को अपनाना । असत्य भाषण से किस प्रकार विरत होना, सत्य किस प्रकार बोलना यह विवेचन व्रत- प्रकरण में किया गया है । धर्म के प्रसंग में 'सत्य' का कथन यह व्यक्त करता है कि साधक को अपने व्रतों एवं मर्यादाओं की प्रतिज्ञा के प्रति निष्ठावान रहकर उनका उसी रूप में पालन करना सत्यधर्म है । इस प्रकार यहां यह कर्तव्य निष्ठा को व्यक्त करता है, जैसे हरिश्चन्द्र के प्रसंग में कर्तव्यनिष्ठा को ही सत्यधर्म के रूप में माना गया है । साधक का अपने प्रति सत्य ( ईमानदार ) होना ही सत्यधर्म का पालन है । आचरण के सभी क्षेत्रों में पवित्रता ही सत्य धर्म है । कहा भी गया हैं कि मन, बचन और काया की एक रूपता सत्य है, अर्थात् जैसा विचार वैसी ही वाणी और आचारण रखे यही सत्यता है । वास्तव में यही नैतिक जीवन की पहचान भी है । महावीर कहते हैं कि जो निष्ठापूर्वक सत्य की आज्ञा का पालन करता है, वह बन्धन से मुक्त हो जाता है सत्य के सन्दर्भ में महावीर का दृष्टिकोण यही है कि व्यक्ति के जीवन में ( अन्तस् और बाह्य) एक रूपता होनी चाहिए । अन्तरात्मा के प्रति निष्ठावान् होना ही सत्यधर्म है । ६. संयम जैन दर्शन के अनुसार पूर्व संचित कर्मों के क्षय के लिए तप आवश्यक है और संयम से भावी कर्मों के आस्रव का निरोध होता है । संयम मनोवृत्तियों, कामनाओं और इन्द्रिय व्यवहार का नियम न करता है । संयम का अर्थ दमन नहीं, वरन् उनको सम्यक् दिशा में योजित करना है । संयम एक और अकुशल, अशुभ एवं पाप जनक व्यवहारों से निवृत्ति है तो दूसरी ओर शुभ में प्रवृत्ति है । दशवैकालिकसूत्र में कहा है कि अहिंसा, संयम और तपयुक्त धर्म ही सर्वोच्च शुभ (मंगल) है । जैन आचार्यों ने संयम के अनेक भेद बताये हैं विस्तार भय से उनका विवेचन संभव नहीं है । पांच आस्रव स्थान, चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ एवं मन, वाणी और शरीर का संयम् प्रमुख है । १. गीता, १६।३, १७।१४, १८४२ । ३. आचारांग १।३।३।११९ । ५. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ७, पृ० ८७ । Jain Education International २. गीता शांकरभाष्य १३।७ | दशवेकालिक, १।१ ४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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