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________________ जैन आचार के सामान्य नियम ४१३ होता है । भिक्षुओ, जीवन मद से मत्त भिक्षु शिक्षा का त्यागकर पतनोन्मुख होता है ।' सुत्तनिपात में कहा है कि जो मनुष्य जाति, धन और गोत्र का गर्व करता है वह उसकी अवनति का कारण है । इस प्रकार बौद्ध धर्म में १. यौवन, २. आरोग्य, ३. जीवन, ४. जाति, ५ धन और ६. गोत्र इन छह मदों से बचने का निर्देश है । गीता में अहंकार वृत्ति की निन्दा - गीता के अनुसार अहंकार को पतन का कारण माना गया है। जो यह अहंकार करता है कि मैं अधिपति हूँ, मैं ऐश्वर्य का भोग करनेवाला हूँ, मैं सिद्ध, बलवान् और सुखी हूँ, मैं बड़ा धनवान् और कुलवान हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है वह अज्ञान से विमोहित है । 3 जो धन और सम्मान के मद से युक्त है वह भगवान् की पूजा का ढोंग करता है। गीता को दृष्टि में अहंकार और घमण्ड करने वाला भगवान् का दोषी है । महाभारत में कहा है कि जब व्यक्ति पर रूप का और धन का मद सवार हो जाता है तो वह ऐसा मानने लगता है कि मैं बड़ा कुलीन हूँ, सिद्ध हूँ, साधारण मनुष्य नहीं हूँ । रूप, धन और कुल इन तीनों के अभिमान के कारण चित्त में प्रमाद भर जाता है, वह भोगों में आसक्त होकर बाप-दादों द्वारा संचित सम्पत्ति खो बैठता है । " इस प्रकार जैन, बौद्ध और हिन्दू आचार-दर्शन अभिमान का त्याग करना और विनम्रता को अंगीकार करना आवश्यक मानते हैं । जिस प्रकार नदी के मध्य रही हुई घास, भयंकर प्रवाह में भी अपना अस्तित्व बनाये रखती है, जबकि बड़े-बड़े वृक्ष उस संघर्ष में धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार जीवन-संघर्ष में विनीत व्यक्ति ही निरापद रूप से पार होते हैं । ३. आर्जव निष्कपटता या सरलता आर्जव गुण है । इसके द्वारा माया ( कपट वृत्ति) कषाय पर विजय प्राप्त की जाती है । कुटिल वृत्ति ( कपट ) सद्भाव की विनाशक है, वह सामाजिक और वैयक्तिक दोनों जीवन के लिए हानिकर है । व्यक्ति की दृष्टि से कपट-वृत्ति एक प्रकार की आत्म-प्रवंचना है, वह स्वयं अपने आपको धोखा देने की प्रवृत्ति है । जबकि सामाजिक दृष्टि से कपट - वृत्ति व्यवहार में शंका को जन्म देती है और पारस्परिक सद्भाव का नाश करती है । यही शंका और कुशंका, भय और असद्भाव सामाजिक जीवन में विवाद और संघर्ष के प्रमुख कारण बनते हैं के द्वारा ही व्यक्ति विश्वासपात्र बनता है । । १. अंगुत्तरनिकाय, ३।३९ ३. गीता, १६ । १४-१५ । ५. महाभारत, शांतिपर्व, १७६।१७-१८ । ७. उत्तराध्ययन, २९।४८ । Jain Education International उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आर्जव गुण जिसमें आर्जव गुण का अभाव है वह २. सुत्तनिपात, १।६।१४ । ४. वही, १६।१७ । दशवैकालिक, ८३८ । ६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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