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________________ ४१२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन का अभाव हो जाता है। राष्ट्रों में जब यह शक्तिमद तीव्र होता है तो वे दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण के लिए बड़े ही आतुर हो जाते हैं और न कुछ बात के लिए आक्रमण कर देते हैं । (४) तपमद-तपस्या का अहंकार करना । व्यक्ति में जब तप का अहंकार जागृत होता है तो वह साधना से गिर जाता है । जैन कथा-साहित्य में कुरुगुडुक केवली की कथा इस बात को बड़े ही सुन्दर रूप में चित्रित करती है कि तप का अहंकार करनेवाले साधना के क्षेत्र में कितने पीछे रह जाते हैं । (५) रूपमद-शारीरिक सौन्दर्य का अहंकार करना । रूपमद भी व्यक्ति में अहंकार की वृत्ति जागृत कर दूसरे को अपने से निम्न समझने की भावना उत्पन्न करता है और इस प्रकार एक प्रकार की असमानता का बीज बोता है। पाश्चात्य राष्ट्रों में श्वेत और काली जातियों के बीच चलने वाले संघर्ष के मूल में रूप और जाति का अभिमान ही प्रमुख है । (६) ज्ञानमद-बुद्धि अथवा विद्या का अहंकार करना । ज्ञान का अहंकार जब व्यक्ति में आता है तो वह दूसरे लोगों को अपने से छोटा मानने लगता है, और इस प्रकार एक ओर तो वह दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाने से वंचित रहता है और दूसरी ओर बुद्धि का अभिमान स्वयं उसके ज्ञानउपलब्धि के प्रयत्नों में बाधक बनता है। इस प्रकार उसके ज्ञान का विकास कुण्ठित हो जाता है । (७) ऐश्वर्यमद-धन-सम्पदा और प्रतिष्ठा का अहंकार करना । यह भी समाज में वर्गविद्वष का कारण और व्यक्ति के अन्दर एक प्रकार की असमानता को वृत्ति को जन्म देता है । (८) सत्तामद-पद, अधिकार का घमण्ड करना जैसे गृहस्थ वर्ग में राजा, सेनापति, मंत्री आदि के पद, वैसे ही श्रमण-संस्था में आचार्य, उपाध्याय, गणि आदि के पद । जैन परम्परा के अनुसार जब तक अहंभाव का विगलन होकर विनम्रता नहीं आती तब तक व्यक्ति नैतिक विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि विनय के स्वरूप को जानकर नम्र बनाने वाले बुद्धिमान् की लोक में प्रशंसा होती है, जिस प्रकार प्राणियों के लिए पृथ्वी आधारभूत है, उसी प्रकार वह भी सद्गुणों का आधार होता है । बौद्ध परम्परा में अहंकार को निन्दा-बौद्ध-परम्परा में अहंकार को साधना की दृष्टि से अनुचित माना गया है। अंगुत्तरनिकाय में तीन मदों का विवेचन उपलब्ध है। भिक्षुओ, यौवन-मद में, आरोग्य-मद में, जीवन-मद में, मत्त अज्ञानी सामान्य जन शरीर से दुष्कर्म करता है, वाणी से दुष्कर्म करता है तया मन से दुष्कर्म करता है । वह शरीर, वाणी तथा मन से दुष्कर्म करके शरीर के छूटने पर, मरने के अनन्तर अपाय, दुर्गति, पतन, एवं नरक को प्राप्त होता है । भिक्षुओ, यौवन-मद से मत्त भिक्षु शिक्षा का त्याग कर पतनोन्मुख होता है । भिक्षुओ, आरोग्य-मद से मत्त भिक्षु शिक्षा का त्याग कर पतनोन्मुख १. उत्तराध्ययन, ११४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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