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जैन आचार के सामान्य नियम
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पारमिता (क्षमा-धर्म) का सविस्तार सजीव विवेचन किया है, वे लिखते हैं-द्वेष के समान पाप नहीं है और क्षमा के समान तप नहीं है, इसलिए विविध प्रकार के यत्नों से क्षमा-भावना करनी चाहिए।'
वैदिक परम्परा में क्षमा-वैदिक परम्परा में भी क्षमा का महत्त्व माना गया है । मनु ने दस धर्मों में क्षमा को धर्म माना है। गीता में क्षमा को दैवी-सम्पदा एवं भगवान की ही एक वृत्ति कहा गया है। महाभारत के उद्योग पर्व में क्षमा के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है । उसमें कहा गया है कि क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण है, तथा समर्थ मनुष्यों का भूषण है । हे राजन्, ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं-एक शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करनेवाला और दूसरा निर्धन होने पर भी दान देने वाला । क्षमा द्वेष को दूर करती है, इसलिए वह एक महत्त्वपूर्ण सद्गुण है ।
२. मार्दव
मार्दव का अर्थ विनीतता या कोमलता है । मान कषाय या अहंकार को उपशान्त करने के लिए मार्दव (विनय) धर्म के पालन का निर्देश है। विनय अहंकार का प्रतियोगी है व उससे अहंकार पर विजय प्राप्त की जाती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि धर्म का मूल विनय है। उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक में विनय का विस्तृत विवेचन है । जैन-परम्परा में अविनय का कारण अभिमान कहा गया है। अभिमान आठ प्रकार का है-(१) जाति मद-जाति का अहंकार करना, जैसे में ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ अथवा उच्च वर्ण का हूँ, उच्च जाति के अहंकार के कारण निम्न जाति केलोगों के प्रति घृणा की वृत्ति उत्पन्न होती है और परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में एक प्रकार की दुर्भावना और विषमता उत्पन्न होती है। (२) कुलमद-परिवार को कुलीनता का अहंकार करना । कुलमद व्यक्ति को दो तरह से नीचे गिराता है । एक तो यह कि जब व्यक्ति में कुल का अभिमान जागृत होता है तो वह दूसरों को अपने से निम्न समझने लगता है और इस प्रकार सामाजिक जीवन में असमानता की वृत्ति को जन्म देता है। दुसरे कुल के अहंकार के कारण वह कठिन परिस्थितियों में भी श्रम करने से जी चुराता है, जैसे कि मैं राजकुल का हूँ अतः अमुक निम्न श्रेणी का व्यवसाय या कार्य कैसे करूँ। इस प्रकार झूठी प्रतिष्ठा के व्यामोह में अपने कर्तव्य से विमुख होता है व समाज पर भार बनकर रहता है । (३) बलमद-शारीरिक शक्ति का अहंकार करना । शक्ति का अहम व्यक्ति में भावावेश उत्पन्न करता है, और परिणामस्वरूप व्यक्ति में सहनशीलता
१. बोविचर्यावतार, ६२।।
२. गीता, १०४, १६।३ । ३. महाभारत, उद्योगपर्व, ३३।४९,५८ । ४. दशवैकालिक, ८।३९ । ५. उत्तराध्ययन, १।४५ ।
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