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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
१. क्षमा
क्षमा प्रथम धर्म है । दशवकालिकसूत्र के अनुसार क्रोध प्रीति का विनाशक है।' क्रोध कषाय के उपशमन के लिए क्षमा धर्म का विधान है । क्षमा के द्वारा ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है। जैन-परम्परा में अपराधी को क्षमा करना और स्वयं के अपराधों के लिए, जिसके प्रति अपराध किया गया है, उससे क्षमा याचना करना साधक का परम कर्तव्य है। जैन साधक का प्रतिदिन यह उद्घोष होता है कि मैं सभी प्राणियों को क्षमा करता हूं और सभी प्राणी मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें। सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है । महावीर का श्रमण साधकों के लिए यह आदेश था कि साधुओ, यदि तुम्हारे द्वारा किसी का अपराध हो गया है, तो सबसे पहले क्षमा मांगो। जब तक क्षमायाचना न कर लो भोजन मत करो, स्वाध्याय मत करो, शौचादि कर्म भी मत करो, यहाँ तक कि अपने मुँह का थूक भी गले से नीचे मत उतारो। अपने प्रधान शिष्य गौतम को लाये हुए आहार को रखवा कर पहले आनन्द श्रावक से क्षमा याचना के लिए भेजना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर की दृष्टि में क्षमा-धर्म का कितना अधिक महत्त्व था । जैन-परम्परा के अनुसार प्रत्येक साधक को प्रातःकाल एवं सायंकाल, पक्षान्त में, चातुर्मास के अन्त में और संवत्सरी पर्व पर सभी प्राणियों से क्षमा-याचना करनी होती है। जैन समाज का वार्षिक पर्व 'क्षमावणी' के नाम से ही प्रसिद्ध है । जैन आचार-दर्शन की मान्यता है कि यदि श्रमण साधक पक्षान्त तक अपने क्रोध को शान्त कर क्षमायाचना नहीं कर लेता है तो उसका श्रमणत्व समाप्त हो जाता है । इसी प्रकार गृहस्थ उपासक यदि चार महीने से अधिक अपने हृदय में क्रोध के भाव बनाये रखता है और जिसके प्रति अपराध किया है उससे क्षमा याचना नहीं करता तो वह गृहस्थ-धर्म का अधिकारी नहीं रह पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति एक वर्ष से अधिक तक अपने क्रोध की तीव्रता को बनाये रखता है और क्षमायाचना नहीं करता वह सम्यक्-श्रद्धा का अधिकारी भी नहीं होता है और इस प्रकार जैनत्व से भी च्युत हो जाता है।
बौद्ध-परम्परा में क्षमा-बौद्ध-परम्परा में भी क्षमा का महत्त्व निर्विवाद है। कहा गया है कि आर्य विनय के अनुसार इससे उन्नति होती है जो अपने अपराध को स्वीकार करता है और भविष्य में संयत रहता है ।५ संयुत्तनिकाय में कहा है कि क्षमा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है । क्षमा ही परम तप है । आचार्य शान्तिरक्षित ने क्षान्ति १. दशवैकालिक, ८।३८ ।
२. वही ८.३९ । ३. आवश्यकसूत्र-क्षमापणा पाठ । ४. उपासकदशांग, ११८४ । ५. अत्तरनिकाय १।१२ ।
६. संयुत्त निकाय, १०।१२ । ७. धम्मपद, १८४ ।
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