________________
जैन आचार के सामान्य नियम
४०९
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध एवं गीता के आचारदर्शनों में षट् आवश्यकों का विवेचन प्रकारान्तर से वर्णित है । दशविध धर्म (सद्गुण)
जैन-आचार्यों ने दस प्रकार के धर्मो (सद्गुणों) का वर्णन किया है जो कि गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए समान रूप से आचरणीय हैं। आचारांग, मूलाचार, बारस्सअणुवेक्खा, स्थानांग, समवायांग और तत्त्वार्थ के साथ-साथ परवर्ती अनेक ग्रन्थों में भी इन धर्मों का वर्णन विस्तार से उपलब्ध होता है। ___ यहां धर्म शब्द का अर्थ सद्गुण या नैतिकगुण ही अभिप्रेत है। सर्वप्रथम हमें आचरांग सूत्र में आठ सामान्य धर्मों का उल्लेख उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया है कि जो धर्म में उत्थित अर्थात् तत्पर है उनको और जो धर्म में उत्थित नहीं है उनको भी निम्न बातों का उपदेश देना चाहिए-शांति, विरति (विरक्ति), उपशम, निवृत्ति, शौच (पवित्रता), आर्जव, मार्दव और लाघव' । इस प्रकार उसमें इनकी साधना गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए अपेक्षित है । स्थानांग और समवायांग में दस श्रमण धर्मों के रूप में इन्हीं सद्गुणों का उल्लेख हुआ है यद्यपिस्थानांग और समवायांग की सूची आचारांग से थोड़ी भिन्न है । उसमें दसधर्म हैं-क्षांति (क्षमा), मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास । इस सूची में शौच का अभाव है। शांति, विरति, उपशम और निवृत्ति के स्थान पर नामान्तर से क्षांति, मुक्ति, संयम और त्याग का उल्लेख हुआ है । जबकि सत्य, त्याग और ब्रह्मचर्यवास इस सूची में नये हैं। बारसअनुवेक्खा एवं तत्त्वार्थ में भी श्रमणाचार के प्रसंग में ही दस धर्मों का उल्लेख हुआ है । तत्त्वार्थ की सूची में लाघव के स्थान पर आकिंचन्य का उल्लेख हुआ है यद्यपि दोनों का अर्थ समान ही है । दूसरे तत्त्वार्थ में मुक्ति के स्थान पर शौच का उल्लेख हुआ है। इन दोनों में अर्थ भेद भी है। चाहे इन धर्मों (सद्गुणों) का उल्लेख श्रमणाचार के प्रसंग में ही अधिक हुआ है किन्तु आचारांग (१।६।५) और पद्मनन्दीकृत पंचविंशतिका (६।५९) के अनुसार इनका पालन गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए अपेक्षित है। इनके क्रम और नामों को लेकर जैन आचार ग्रन्थों में थोड़ा-बहुत मतभेद पाया जाता है। फिर भी इनकी मूलभावना में कोई विशेष अन्तर नहीं है। प्रस्तुत विवेचन तत्त्वार्थ के आधार पर कर रहे हैं । तत्त्वार्थ में निम्न दस धर्मों का उल्लेख है (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (९) अकिंचनता और (१०) ब्रह्मचर्य ।
१. आचारांग, १।६।५ । ३. समवायांग १०।१ ।
२. स्थानांग, १०।१४ । ४. तत्त्वार्थ, ९।६।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org