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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन का तप करना, ३. कोटि सहित-पूर्व गृहीत नियम की अवधि समाप्त होते ही बिना व्यवधान के भविष्य के लिए प्रतिज्ञा ग्रहण कर लेना; ४. नियंत्रित-विघ्न-बाधाओं के होने पर पूर्व संकल्पित व्रत आदि का प्रतिज्ञा कर लेना; ५. साकार (सापवाद), ६. निराकार (निरपवाद), ७. परिमाण कृत (मात्रा सम्बन्धी), ८. निरवशेष (पूर्ण), ९. सांकेतिक-संकेत चिह्न से सम्बन्धित, १०. अद्धा प्रत्याख्यान-समय-विशेष के लिए किया गया प्रत्याख्यान । आचार्य भद्रबाहु ने प्रत्याख्यान का महत्त्व बताते हुए कहा है कि प्रत्याख्यान करने से संयम होता है । संयम से आस्रव का निरोध होता है और आस्रव-निरोध से तृष्णा का क्षय होता है । वस्तुतः प्रत्याख्यान अमर्यादित जीवन को मर्यादित या अनुशासित बनाता है । जैन परम्परा के अनुसार आस्रव एवं बन्धन का एक कारण अविरति भी कहा गया है । प्रत्याख्यान अविरति का निरोध करता है । प्रत्याख्यान त्याग के संबंध में ली गयी प्रतिज्ञा या आत्म-निश्चय है। जब दुराचरण से विरत होने के लिए केवल उसे नहीं करना, इतना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसके नहीं करने का आत्म-निश्चय भी आवश्यक है । जैन-धर्म की मान्यता के अनुसार दुराचरण नहीं करनेवाला व्यक्ति भी जब तक दुराचरण नहीं करने की प्रतिज्ञा नहीं लेता, तब तक दुराचरण के दोष से मुक्त नहीं है । प्रतिज्ञा के अभाव में मात्र परिस्थितिगत विवशताओं के कारण जो दुराचार में प्रवृत्त नहीं है, वह वस्तुतः दुराचरण के दोष से मुक्त नहीं है । वृद्ध वेश्या के पास कोई नहीं जाता तो इतने मात्र से यह वेश्यावृत्ति से निवृत्ति नहीं मानी जा सकती । कारागार में पड़ा हुआ चोर चौर्य-कर्म से निवृत्त नहीं है । प्रत्याख्यान दुराचार से निवृत्त होने के लिए किया जानेवाला दृढ़ संकल्प है। उसके अभाव में नैतिक जीवन में प्रगति सम्भव नहीं है। स्थानांगसूत्र में प्रत्याख्यान-शुद्धि के लिए पांच बातों का विधान है-१. श्रद्धान--शुद्ध, २. विनय--शुद्ध, ३. अनुभाषण--शुद्ध ४. अनुपालन-शुद्ध और ५. भाव--शुद्ध ।२ इन पाँचों की उपस्थिति में ही ग्रहीत प्रतिज्ञा शुद्ध होती है और नैतिक प्रगति में सहायक होती है।
गोता में त्याग-गीता में प्रत्याख्यान के स्थान पर त्याग के सम्बन्ध में कुछ विवेचन उपलब्ध है । गीता में तीन प्रकार का त्याग कहा गया है-१. सात्त्विक, २. राजस और ३. तामस । १. तामस-नियत कर्म का त्याग करना योग्य नहीं है, इसलिए मोह से उसका त्याग करना तामस-त्याग है । २. राजस-सभी कर्म दुःख रूप है ऐसा समझकर शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग करना राजस त्याग है । ३. सात्त्विक--शास्त्र-विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य-कर्म करते हुए उसमें आसक्ति और फल का त्याग कर देना सात्त्विक त्याग है ।
१. आवश्यकनियुक्ति, १५९४ । ३. गीता, १८।४, ७-९ ।
२. स्थानांगसूत्र ५।३।४६६ ।
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