SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आचार के सामान्य नियम तनाव बढ़ता है । हम भाव क्रिया करना सीख जायें, शरीर और मन को साथ-साथ काम में संलग्न करने का अभ्यास कर लें तो स्नायविक तनाव बढ़ने का अवसर ही न मिले । जो लोग इस स्नायविक तनाव के शिकार होते हैं, वे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से वंचित रहते हैं । वे लोग अधिक भाग्यशाली हैं, जो इस तनाव से मुक्त रहते हैं । कायोत्सर्ग इसी तनाव मुक्ति का प्रयास है । " ६. प्रत्याख्यान इच्छाओं के निरोध के लिए प्रत्याख्यान एक आवश्यक कर्तव्य है | प्रत्याख्यान का अर्थ है प्रवृत्ति को मर्यादित अथवा सीमित करना । संयमपूर्ण जीवन के लिए त्याग आवश्यक है, इस रूप में प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग भी माना जा सकता है । नित्य कर्मों में प्रत्याख्यान का समावेश इसलिए किया गया है कि साधक आत्मशुद्धि के लिए प्रतिदिन यथाशक्ति किसी न किसी प्रकार का त्याग करता है । नियमित त्याग करने से अभ्यास होता है, साधना परिपुष्ट होती है और जीवन में अनासक्ति का विकास और तृष्णा मंद होती है । दैनिक प्रत्याख्यान में सामान्यतया उस दिवस विशेष के लिए कुछ प्रतिज्ञाएँ ग्रहण की जाती हैं जैसे सूर्य उदय के पश्चात् एक प्रहर अथवा दो प्रहर आदि तक कुछ नहीं खाना या सम्पूर्ण दिवस के लिए आहार का परित्याग करना अथवा केवल नीरस या रूखा भोजन करना आदि-आदि । प्रत्याख्यान के दो रूप हैं१. द्रव्य प्रत्याख्यान – आहार सामग्री, वस्त्र परिग्रह आदि बाह्य पदार्थों में से कुछ को छोड़ देना द्रव्य - प्रत्याख्यान है । २. भाव प्रत्याख्यान - राग, द्वेष, कषाय आदि अशुभ मानसिक वृत्तियों का परित्याग करना भावप्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान के मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान ऐसे दो भेद भी किये हैं । नैतिक जीवन के विकास में मुख्य व्रतों का ग्रहण मूलगुण प्रत्याख्यान कहलाता है और नैतिक जीवन के विकास में सहायक व्रतों का ग्रहण उत्तरगुण- प्रत्याख्यान कहलाता है । मूलगुण और उत्तरगुण प्रत्याख्यान भी सर्व अर्थात् पूर्णरूप मेंपालनीय और देश अर्थात् आंशिक रूप से पालनीय होते हैं । इस आधार पर चार भाग हो जाते हैं - १. सर्वमूल- गुण प्रत्याख्यान - श्रमण के पाँच महाव्रतों की प्रतिज्ञा, २. देश मूलगुण प्रत्याख्यान - गृहस्थ जीवन के पाँच अणुव्रतों की प्रतिज्ञा, ३. सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान - उपवास आदि की प्रतिज्ञाएँ जो गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए हैं, ४. देश उत्तरगुण प्रत्याख्यान - गृहस्थ के गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों की प्रतिज्ञाएँ । प्रकारान्तर से भगवतीसूत्र में प्रत्याख्यान के दस भेद वर्णित हैं - १. अनागत - पर्व की तपसाधना को पूर्व ही कर लेना, २ . अतिक्रान्त - पर्व तिथि के पश्चात् पर्व तिथि १. तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो, पृ० २७-२८ । २. योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति - उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ० १०४ । ४०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy