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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
गीता कायोत्सर्ग - गीता में कायोत्सर्ग की विधि ध्यान-योग के सन्दर्भ में देखी जा सकती है। गीता में कहा गया है कि शुद्ध भूमि में कुशा, मृगछाला और वस्त्र हैं उपरोपरि जिसके ऐसे अपने आसन को, न अति ऊँचा और न अति नीचा स्थिर स्थापित करके काया, शिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किये हुए दृढ़ होकर अपने नासिका के अग्रभाग को देखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ और ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थिर रहता हुआ भयरहित तथा अच्छी प्रकार शान्त अन्तःकरण वाला और सावधान होकर मन को वश में करके मेरे में लगे हुए चित्तवाला और मेरे परायण हुआ स्थित होवे ।
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कायोत्सर्ग के लाभ – आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग के पाँच लाभ बताये हैं ? - (१) देहजाड्य शुद्धि - श्लेष्म आदि के द्वारा देह में जड़ता आती है । कायोत्सर्ग से श्लेष्म आदि नष्ट होते हैं । अतः उनसे उत्पन्न होनेवाली जड़ता भी नष्ट हो जाती है । ( २ ) मतिजाड्य शुद्धि - कायोत्सर्ग में मन की प्रवृत्ति केन्द्रित हो जाती है, उससे बौद्धिक जड़ता क्षीण होती है । ( ३ ) सुख - दुःख तितिक्षा, (४) कायोत्सर्ग में स्थित व्यक्ति अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का स्थिरतापूर्वक अभ्यास कर सकता है । ( ५ ) ध्यान - कायोत्सर्ग में शुभ ध्यान का अभ्यास सहज हो जाता है |
कायोत्सर्ग के लाभ के सन्दर्भ में शरीर शास्त्रीय दृष्टिकोण - आधुनिक शरीर शास्त्र की दृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि कायोत्सर्ग एक प्रकार से शारीरिक क्रियाओं की निवृत्ति है । शरीर शास्त्र की दृष्टि से, शरीर को विश्राम देना आवश्यक है, क्योंकि शारीरिक प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप शरीर में निम्न विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । १. स्नायुओं में स्नायु शर्करा कम होती है । २. लेक्टिव एसिड स्नायुओं में जमा होती है ३. लेक्टिव एसिड की वृद्धि होने पर उष्णता बढ़ती है । ४. स्नायु तंत्र में थकान आती है । ५. रक्त में प्राणवायु की मात्रा कम होती है । कायोत्सर्ग के द्वारा शारीरिक क्रियाओं में शिथिलता आती है और परिणामस्वरूप शारीरिक तत्त्व जो श्रम के कारण विषम स्थिति में हो जाते हैं वे पुनः सम स्थिति में आ जाते हैं । (१) एसिड पुनः स्नायु-शर्करा में परिवर्तन होता है । ( २ ) लेक्टिक एसिड का जमाव कम होता है । ( ३ ) लेक्टिक एसिड की कमी से उष्णता में कमी होती है । ( ४ ) स्नायुतन्त्र में ताजगी आती है । (५) रक्त में प्राणवायु की मात्रा बढ़ती है । मन, मस्तिष्क और शरीर में गहरा सम्बन्ध है । उनके असमंजस से उत्पन्न अवस्था ही स्नायविक तनाव हैं । मानसिक आवेग उसके मुख्य कारण हैं । हम जब द्रव्यक्रिया करते हैं, अर्थात् शरीर को किसी दूसरे काम में लगाते हैं और मन कहीं दूसरी ओर भटकता है, तब स्नायविक
२. आवश्यक निर्युक्ति, १४६२ ।
१. गीता, ६ । ११, १३-१४ ।
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