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________________ ३९८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ( बाह्य ) और भाव ( आंतर ) दोनों दृष्टियों से शुद्ध संयमी पुरुष ही वन्दनीय है । आचार्य भद्रबाहु ने यह निर्देश किया है कि जिस प्रकार वही सिक्का ग्राह्य होता है जिसकी धातु भी शुद्ध हो और मुद्रांकन भी ठीक हो, उसी प्रकार द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से शुद्ध व्यक्ति ही वन्दन का अधिकारी होता है । " वन्दन करनेवाला व्यक्ति विनय के द्वारा लोकप्रियता प्राप्त करता है । भगवतीसूत्र के अनुसार वन्दन के फलस्वरूप गुरुजनों के सत्संग का लाभ होता है । सत्संग से शास्त्र श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान और फिर क्रमशः प्रत्याख्यान, सयमअनास्रव, तप, कर्मनाश, अक्रिया एवं अन्त में सिद्धि की उपलब्धि हो जाती है । 3 शास्त्र श्रवण, वन्दन का मूल उद्देश्य है जीवन में विनय को स्थान देना । विनय को जिन-शासन का मूल कहा गया है । सम्पूर्ण संघ व्यवस्था विनय पर आधारित है । अविनीत न तो संघ व्यवस्था में सहायक होता है और न आत्मकल्याण ही कर सकता है । आवश्यक निर्युक्ति में आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि जिनशासन का मूल विनय है, विनीत ही सच्चा संयमी होता है । जो विनयशील नहीं है उसका कैसा तप और कैसा धर्म ?" दशवैकालिक के सूत्र अनुसार जिस प्रकार वृक्ष के मूल से स्कन्ध, स्कन्ध से शाखाएँ, शाखाओं से प्रशाखाएँ और फिर क्रम से पत्र, पुष्प, फल एवं रस उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार धर्मवृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल एवं रस मोक्ष है । * श्रमण साधकों में दीक्षा पर्याय के आधार पर वन्दन किया जाता है । सभी पूर्व - दीक्षित साधक वन्दनीय होते हैं । जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में श्रमण जीवन की वरिष्ठता और कनिष्ठता ही वन्दन का प्रमुख आधार है । यद्यपि दोनों परम्पराओं में दीक्षा या उपसम्पदा को दृष्टि से वरिष्ठ श्रमणी को भी कनिष्ठ या नवदीक्षित श्रमण को वंदन करने का विधान है । गृहस्थ साधकों के लिए सभी श्रमण, श्रमणी तथा आयु में बड़े गृहस्थ वंदनीय हैं । वन्दन के सम्बन्ध में बुद्ध वचन है कि पुण्य की अभिलाषा करता हुआ व्यक्ति वर्ष भर जो कुछ यज्ञ व हवन लोक में करता है, उसका फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चौथा भाग भी नहीं होता । अतः सरलवृत्ति महात्माओं को अभिवादन करना ही अधिक श्रेयस्कर है ।' ६ सदा वृद्धों की सेवा करने वाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएँ वृद्धि को प्राप्त होती हैं – आयु, सौन्दर्य, सुख तथा बल । धम्मपद का यह श्लोक किंचित् परिवर्तन के साथ मनुस्मृति में भी पाया जाता है । उसमें कहा है कि अभिवादन १. आवश्यक निर्युक्ति, ११३८ । ३. भगवतीसूत्र, २।५।११२ । ५. दशवैकालिक, ९।२।१-२ ॥ ७. वही, १०९ । Jain Education International २. उत्तराध्ययन, २९।१० । ४. आवश्यक निर्युक्ति, १२१६ । ६. धम्मपद, १०८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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