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________________ जैन आचार के सामान्य नियम जैन विचार में स्तुति के दो रूप माने गये हैं। १. द्रव्य और २. भाव । सात्त्विक वस्तुओं द्वारा तीर्थंकर की प्रतिमा की पूजा करना द्रव्यस्तव है और भगवान् के गुणों का स्मरण करना भावस्तव है। जैनों के अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय द्रव्यस्तव के महत्त्व को स्वीकार नहीं करते हैं । द्रव्यस्तव के पीछे मूलतः यही भावना रही होगी कि उसके माध्यम से मनुष्य ममत्व का त्याग करे । वस्तुओं अथवा संग्रह के ममत्व का त्याग कर देना ही द्रव्यपूजा का प्रयोजन है । द्रव्यपूजा केवल गृहस्थ उपासकों के लिए है । क्योंकि साधु को न तो ममत्व होता है और न उसके पास कोई संग्रह होता है, अतः उसके लिए भावस्तव ही मुख्य माना गया है । वस्तुतः स्तवन का मूल्य आदर्श को उपलब्ध करनेवाले महापुरुषों की जीवनगाथा के स्मरण के द्वारा साधना के क्षेत्र में प्रेरणा प्राप्त करना है । आचार्य समन्तभद्र कहते हैं न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त वैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चेतो दुरितांजनेभ्यः ।।-स्वयम्भूस्तोत्र हे नाथ, आप तो वीतराग है। आपको अपनी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है। आप न पूजा करनेवालों से खुश होते हैं और न निन्दा करने वालों से नाखुश, क्योंकि आपने तो वैर का पूरी तरह वमन कर दिया है। तो भी यह निश्चित है कि आपके पवित्र गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पापरूप कलंकों से हटाकर पवित्र बना देता है। ३. वन्दन यह तीसरा आवश्यक वन्दन है । साधना के आदर्श के रूप में तीर्थंकर देव की उपासना के पश्चात् साधनामार्ग के पथ-प्रदर्शक गुरु की विनय करना वन्दन है । वन्दन मन, वचन और काया का वह प्रशस्त व्यापार है जिससे पथ-प्रदर्शक गुरु एवं विशिष्ट साधनारत साधकों के प्रति श्रद्धा और आदर प्रकट किया जाता है। इसमें उन व्यक्तियों को प्रणाम किया जाता है जो साधना-पथ पर अपेक्षाकृत आगे बढ़े हुए हैं। वन्दन के सम्बन्ध में यह भी जान लेना आवश्यक है कि वन्दन किसे किया जाये ? आचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट रूप से यह निर्देश किया है कि गुणहीन एवं दुराचारी अवंद्य व्यक्ति को वन्दन करने से न तो कर्मों की निर्जरा होती है न कीर्ति ही, प्रत्युत् असंयम और दुराचार का अनुमोदन होने से कर्मों का बंध होता है। ऐसा वन्दन व्यर्थ का काय क्लेश है ।' आचार्य ने यह भी निर्देश किया है कि जो व्यक्ति अपने से श्रेष्ठजनों द्वारा वन्दन कराता है, वह असंयम में वृद्धि करके अपना अधःपतन करता है। जैनविचारधारा के अनुसार जो चारित्र एवं गुणों से सम्पन्न हैं, वे ही वन्दनीय हैं । द्रव्य १. आवश्यकनियुक्ति, ११०८ । २. वही, ११०९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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