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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
रूप का बोध या साक्षात्कार है, अपने में निहित परमात्म शक्ति को अभिव्यक्त करना है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि सम्यक्ज्ञान और आचरण से युक्त हो निर्वाणाभिमुख होना ही गृहस्थ और श्रमण की वास्तविक भक्ति है । मुक्ति को प्राप्त पुरुषों के गुणों का कीर्तन करना व्यावहारिक भक्ति है । वास्तविक भक्ति तो आत्मा को मोक्षपथ में योजित करना है, जो राग-द्वेष एवं सर्व विकल्पों का परिहार करके विशुद्ध आत्मतत्त्व से योजित होना है, यही वास्तविक भक्ति-योग है । ऋषभ आदि सभी तीर्थकर इसी भक्ति के द्वारा परमपद को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार भक्ति या स्तवन मूलतः आत्मबोध है, वह अपना ही कीर्तन और स्तवन है। जैन दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय देवचन्द्रजी लिखते हैं ।
अज-कुल-गत केशरी लहेरे, निज पद सिंह निहाल ।
तिम प्रभु भक्ति भवी लहेरे, आतम शक्ति संभाल ।। जिस प्रकार अज कुल में पालित सिंहशावक वास्तविक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार साधक तीर्थंकरों के गुणकीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व की शोध कर लेता है, स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता है । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जैन-साधना में भगवान् की स्तुति निरर्थक है। जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान् की स्तुति प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और हमारे सामने साधना के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। इतना ही नहीं, वह उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा भी बनती है। जैन विचारकों ने यह भी स्वीकार किया है कि भगवान् की स्तुति के माध्यम से मनुष्य अपना आध्यत्मिक विकास कर सकता है । यद्यपि प्रयत्न व्यक्ति का ही होता है, तथापि साधना के आदर्श उन महापुरुषों का जीवन उसकी प्रेरणा का निमित्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि स्तवन से व्यक्ति की दर्शन-विशुद्धि होती है। यह भी कहा है कि भगवद्भक्ति के फलस्वरूप पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है। यद्यपि इसका कारण परमात्मा को कृपा नहीं, वरन् व्यक्ति के दृष्टिकोण को विशुद्धि ही है । आचार्य भद्रबाहु ने इस बात को बड़े हो स्पष्ट रूप में स्वीकार किया है कि भगवान् के नाम-स्मरण से पापों का पुंज नष्ट होता है। आचार्य विनयचन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं ।
पाप-पराल को पुंज वण्यो अति, मानो मेरू आकारो।
ते तुम नाम हुताशन सेती, सहज ही प्रजलत सारो ॥ १. नियमसार, १३४-१४० । २. अजित-जिनस्तवन । ३. उत्तराध्ययन, २९।९।
४. आवश्यकनियुक्ति, १०७६ । ५. विनयचन्द्रचौबीसी।
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