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जैन आचार के सामान्य नियम
३९५ से मुक्त कर दूंगा, यद्यपि महावीर ने सूत्रकृतांग में यह कहा है कि मैं भय से रक्षा करने वाला हूँ।२ बुद्ध ने भी मज्झिमनिकाय में कहा है कि जो मुझे देखता है वह धर्म को देखता है। फिर भी जैन और बौद्ध मान्यता तो यह है कि व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से आध्यात्मिक उत्थान या पतन कर सकता है । स्वयं पाप से मुक्त होने का प्रयत्न न करके केवल भगवान् से मुक्ति की प्रार्थना करना जैन-विचारणा की दृष्टि से सर्वथा निरर्थक है । ऐसी विवेकशुन्य प्रार्थनाओं ने मानव जाति को सब प्रकार से हीन, दीन एवं परापेक्षी बनाया है । जब मनुष्य किसी ऐसे उद्धारक में विश्वास करने लगता है, जो उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर उसे पाप से उबार लेगा तो ऐसी निष्ठा से सदाचार की मान्यताओं को गहरा धक्का लगता है । जैन विचारकों की यह स्पष्ट मान्यता है कि केवल तीर्थंकरों की स्तुति करने से मोक्ष एवं समाधि की प्रप्ति नहीं होती, जब तक कि मनुष्य स्वयं उसके लिए प्रयास न करे ।।
जैन विचार के अनुसार तीर्थंकर तो साधना मार्ग के प्रकाशस्तम्भ हैं । जिस प्रकार गति करना जहाज का कार्य है, उसी प्रकार साधना की दिशा में आगे बढ़ना साधक का कार्य है । जैसे प्रकाश-स्तम्भ की उपस्थिति में भी जहाज समुद्र में बिना गति के उस पार नहीं पहुँचता, वैसे हो केवल नाम-स्मरण या भक्ति साधक को निर्वाण-लाभ नहीं करा सकती, जब तक कि उसके लिए सम्यक् प्रयत्न न हो । डॉ० राधाकृष्णन् ने भी विष्णुपुराण एवं बाइबिल के अधार पर इस कथन की पुष्टि की है। विष्णुपुराण में कहा है कि जो लोग अपने कर्तव्य को छोड़ बैठते हैं और केवल 'कृष्ण-कृष्ण' कहकर भगवान् का नाम जपते हैं, वे वस्तुतः भगवान् के शत्रु हैं और पापी हैं, क्योंकि धर्म की रक्षा के लिए तो स्वयं भगवान् ने भी जन्म लिया था। बाइबिल में भी कहा है कि वह हर कोई, जो 'ईसा-ईसा' पुकारता है, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं पायेगा, अपितु वह पायेगा, जो परमपिता की इच्छा के अनुसार काम करता है। महावीर ने कहा है कि एक मेरा नाम-स्मरण करता है और दूसरा मेरी आज्ञाओं का पालन करता है, उनमें जो मेरी आज्ञाओं के अनुसार आचरण करता है, वही यथार्थतः मेरी उपासना करता है । बुद्ध भी कहते हैं कि जो धर्म को देखता है, वही मुझे देखता है।"
फिर भी हमें स्मरण रखना चाहिए कि जैन परम्परा में भक्ति का लक्ष्य आत्म-स्व१. गीता, १८।६६ ।
२. सूत्रकृतांग, १११६ । ३. मज्झिमनिकाय-उद्धृत भगवद् गीता-(रा०), पृ० ७१, इतिवृत्तक ३।४३ । ४. आवश्यकचूर्णि-उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ० ८० । '. देखिए-भगवद्गीता ( रा० ), पृ०७१-विष्णुपुराण, बाइबिल, जोन २।९-११ । ६. आवश्यकवृत्ति, पृ०६६१-६६२ उद्धृत अनुत्तरापातिकदशा भूमिका, पृ० २४ । ७. इतिवृत्तक ३।४३ ।
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