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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पापों को नहीं करना और चित्त को समत्ववृत्ति में स्थापित करना ही बुद्ध का उपदेश है ।' गीता के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि, सुख-दुःख, लौह-कंचन, प्रिय-अप्रिय और निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समभाव और सावध (आरम्भ) का परित्याग ही नैतिक जीवन का लक्षण है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन, तू अनुकूल और प्रतिकूल सभी स्थितियों में समभाव धारण कर । ___ गृहस्थ साधक सामायिक-व्रत सीमित समय ( ४८ मिनिट ) के लिए ग्रहण करता है । आवश्यक कृत्यों में इसको स्थान देने का प्रयोजन यही है कि साधक चाहे वह गृहस्थ हो या श्रमण, सदैव यह स्मृति बनाए रखे कि वह समत्व-योग की साधना के लिए साधनापथ में प्रस्थित हुआ है। अपने निषेधात्मक रूप में सामायिक सावध कार्यों अर्थात् पाप कार्यों से विरति है, तो अपने विधायक रूप में वह समत्व भाव की साधना है। स्तवन [ भक्ति]
यह दूसरा आवश्यक है। जैन आचार दर्शन के अनुसार प्रत्येक साधक का यह कर्तव्य है कि वह नैतिक एवं साधनात्मक जीवन के आदर्श पुरुष के रूप में जैन तीर्थकरों की स्तुति करे । जैन साधना में स्तुति का स्वरूप बहुत कुछ भक्तिमार्ग की जपसावना या नामस्मरण से मिलता है। स्तुति अथवा भक्ति के माध्यम से साधक अपने अहंकार का नाश और सद्गुणों के प्रति अनुराग की वृद्धि करता है। फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन-विचारधारा के अनुसार साधना के आदर्श के रूप में जिसकी स्तुति की जाती है, उन आदर्श पुरुषों से किसी प्रकार की उपलब्धि की अपेक्षा नहीं होती। तीर्थकर एवं सिद्ध परमात्मा किसी को कुछ नहीं दे सकते, वे मात्र साधना के आदर्श हैं । तीर्थंकर न तो किसी को संसार से पार कर सकते हैं और न किसी प्रकार की उपलब्धि में सहायक होते हैं। फिर भी स्तुति के माध्यम से साधक उनके गुणों के प्रति अपनी श्रद्धा को सजीव बना लेता है। साधक के सामने उनका महान् आदर्श जीवन्त रूप में उपस्थित हो जाता है। साधक भी अपने हृदय में तीर्थंकरों के आदर्श का स्मरण करता हुआ आत्मा में एक आध्यात्मिक पूर्णता की भावना प्रकट करता है । वह विचार करता है कि आत्मतत्त्व के रूप में मेरी आत्मा और तीर्थंकरों की आत्मा समान ही है, यदि मैं स्वयं प्रयत्न करूं तो उनके समान ही बन सकता हूँ। मुझे अपने पुरुषार्थ से उनके समान बनने का प्रयत्न करना चाहिए। जैन-तीर्थंकर गीता के कृष्ण के समान यह उद्घोषणा नहीं करते कि तुम मेरी भक्ति करो मैं तुम्हें सब पापों
१. धम्मपद, १८३ । ३. वही, १४॥२४-२५ ।
२. गीता, ६।३२ । ४. वही, २।४८ ।
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