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जैन आचार के सामान्य नियम
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एवं विनय करना, (४) कर्तव्य की स्मृति तथा कर्तव्य पालन में होने वाली गलतियों का अवलोकन करके निष्कपट भाव से उनका संशोधन करना और पुनः वैसी गलतियाँ न हों, इसके लिए आत्मा को जाग्रत करना, (५) ध्यान का अभ्यास करके प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रीति से समझने के लिए विवेक-शक्ति का विकास करना और (६) त्याग - वृत्ति द्वारा सन्तोष व सहनशीलता बढ़ाना । शास्त्र कहता है कि आवश्यक क्रिया आत्मा को प्राप्त भावशुद्धि से गिरने नहीं देती, गुणों की वृद्धि के लिए तथा प्राप्त गुणों से स्खलित न होने के लिए आवश्यक क्रिया का आचरण अत्यन्त उपयोगी है । "
सामायिक [समता ]
सामायिक समत्व वृत्ति की साधना है । जैनाचारदर्शन में समत्व की साधना नैतिक जीवन का अनिवार्य तत्त्व है । वह नैतिक साधना का अथ और इति दोनों है । समत्व साधना के दो पक्ष हैं, बाह्य रूप में वह सावद्य ( हिंसक ) प्रवृत्तियों का त्याग है, तो आन्तरिक रूप में वह सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव ( सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति ) तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा - प्रशंसा में समभाव रखना है । 3 लेकिन दोनों पक्षों से भी ऊपर वह विशुद्ध रूप में आत्मरमण या आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न है । सम ACT अर्थ आत्मभाव ( एकीभाव) और अय का अर्थ है गमन । जिसके द्वारा पर-परिणति (बाह्यमुखता) से आत्म-परिणति ( अन्तर्मुखता ) की ओर जाया जाता है, वही सामायिक है । सामायिक समभाव में है, वह राग-द्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थता रखना है । माध्यस्थ वृत्ति ही सामायिक है । सामायिक कोई रूढ़ क्रिया नहीं, वह तो समत्ववृत्तिरूप पावन आत्म-गंगा में अवगाहन है, जो समग्र राग-द्व ेषजन्य कलुष को आत्मा से अलग कर संक्षेप में सामायिक एक ओर चित्तवृत्ति का समत्व है तो
मानव को विशुद्ध बनाती है । दूसरी ओर पाप विरति ।
समत्व - वृत्ति की यह साधना सभी वर्ग, सभी जाति और सभी धर्म वाले कर सकते
हैं। किसी वेशभूषा और धर्म- विशेष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । भगवतीसूत्र में कहा है, कोई भी मनुष्य चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, जैन हो या अजैन, समत्ववृत्ति की आराधना कर सकता है । वस्तुतः जो समत्ववृत्ति की साधना करता है वह जैन ही है चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म का क्यों न हो ।" एक आचार्य कहते हैं कि चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई, जो भी समत्ववृत्ति का आचरण करेगा वह मोक्ष प्राप्त करेगा, इसमें सन्देह नहीं है । ६
बौद्ध दर्शन में भी यह समत्व वृत्ति स्वीकृत है । धम्मपद में कहा गया है कि सब
१. ज्ञानसार, क्रियाष्टक, ५-७ ।
३. उत्तराध्ययन, १९।९०-९१ । ५. भगवतीसूत्र, २५।७।२१-२३ ।
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२. नियमसार, १२५ ।
४. गोम्मटसार, जीवकाण्ड (टीका ), ३६८। ६. जिनवाणी, सामायिक अंक, पृ० ५७ ।
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