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________________ जैन आचार के सामान्य नियम ३९३ एवं विनय करना, (४) कर्तव्य की स्मृति तथा कर्तव्य पालन में होने वाली गलतियों का अवलोकन करके निष्कपट भाव से उनका संशोधन करना और पुनः वैसी गलतियाँ न हों, इसके लिए आत्मा को जाग्रत करना, (५) ध्यान का अभ्यास करके प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रीति से समझने के लिए विवेक-शक्ति का विकास करना और (६) त्याग - वृत्ति द्वारा सन्तोष व सहनशीलता बढ़ाना । शास्त्र कहता है कि आवश्यक क्रिया आत्मा को प्राप्त भावशुद्धि से गिरने नहीं देती, गुणों की वृद्धि के लिए तथा प्राप्त गुणों से स्खलित न होने के लिए आवश्यक क्रिया का आचरण अत्यन्त उपयोगी है । " सामायिक [समता ] सामायिक समत्व वृत्ति की साधना है । जैनाचारदर्शन में समत्व की साधना नैतिक जीवन का अनिवार्य तत्त्व है । वह नैतिक साधना का अथ और इति दोनों है । समत्व साधना के दो पक्ष हैं, बाह्य रूप में वह सावद्य ( हिंसक ) प्रवृत्तियों का त्याग है, तो आन्तरिक रूप में वह सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव ( सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति ) तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा - प्रशंसा में समभाव रखना है । 3 लेकिन दोनों पक्षों से भी ऊपर वह विशुद्ध रूप में आत्मरमण या आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न है । सम ACT अर्थ आत्मभाव ( एकीभाव) और अय का अर्थ है गमन । जिसके द्वारा पर-परिणति (बाह्यमुखता) से आत्म-परिणति ( अन्तर्मुखता ) की ओर जाया जाता है, वही सामायिक है । सामायिक समभाव में है, वह राग-द्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थता रखना है । माध्यस्थ वृत्ति ही सामायिक है । सामायिक कोई रूढ़ क्रिया नहीं, वह तो समत्ववृत्तिरूप पावन आत्म-गंगा में अवगाहन है, जो समग्र राग-द्व ेषजन्य कलुष को आत्मा से अलग कर संक्षेप में सामायिक एक ओर चित्तवृत्ति का समत्व है तो मानव को विशुद्ध बनाती है । दूसरी ओर पाप विरति । समत्व - वृत्ति की यह साधना सभी वर्ग, सभी जाति और सभी धर्म वाले कर सकते हैं। किसी वेशभूषा और धर्म- विशेष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । भगवतीसूत्र में कहा है, कोई भी मनुष्य चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, जैन हो या अजैन, समत्ववृत्ति की आराधना कर सकता है । वस्तुतः जो समत्ववृत्ति की साधना करता है वह जैन ही है चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म का क्यों न हो ।" एक आचार्य कहते हैं कि चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई, जो भी समत्ववृत्ति का आचरण करेगा वह मोक्ष प्राप्त करेगा, इसमें सन्देह नहीं है । ६ बौद्ध दर्शन में भी यह समत्व वृत्ति स्वीकृत है । धम्मपद में कहा गया है कि सब १. ज्ञानसार, क्रियाष्टक, ५-७ । ३. उत्तराध्ययन, १९।९०-९१ । ५. भगवतीसूत्र, २५।७।२१-२३ । Jain Education International २. नियमसार, १२५ । ४. गोम्मटसार, जीवकाण्ड (टीका ), ३६८। ६. जिनवाणी, सामायिक अंक, पृ० ५७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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