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जैन आचार के सामान्य नियम
जैन आचारदर्शन में आचरण के कुछ सामान्य नियम ऐसे हैं, जिनका पालन करना गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए आवश्यक है । इन नियमों को निम्नलिखित उपशीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है - १. षट् आवश्यक कर्म, २. दस धर्मों का परिपालन, ३. दान, शील, तप और भाव, ४. बारह अनुप्रेक्षाएँ ( भावनाएँ), ५. समाधिमरण । षट् आवश्यक कर्म
।
आवश्यक शब्द के अनेक अर्थ हैं । प्रथम जो अवश्य किया जाय, वह आवश्यक । दूसरे जो आध्यात्मिक सद्गुणों का आश्रय है, वह आवस्सय (आपाश्रय) है ( संस्कृत के आपाश्रय का प्राकृतरूप भी आवस्स्य होता है ) तीसरे जो आत्मा को दुर्गुणों से हटा कर सद्गुणों के वश्य ( अधीन ) करता है, उसे भी आवश्यक कहते हैं । आत्मा को ज्ञानादि गुणों से आवासित, ४ अनुरंजित " अथवा आच्छादित भी आवश्यक कहा है । ( संस्कृत के 'आवासक' का प्राकृत रूप भी जाता है ) ।
इसी प्रकार जो
करता है, उसे आवस्सय बन
अनुयोगद्वारसूत्र के अनुसार षट् आवश्यक गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए आवश्यक माने गये हैं । उसमें आवश्यक के निम्न पर्यायवाची नाम भी बताये गये हैं— (१) आवश्यक, (२) अवश्यकरणीय, (३) ध्रुवनिग्रह ( अनादि कर्मों का निग्रह करने वाला, ( ४ ) विशोधि ( आत्मा की विशुद्धि करनेवाला ), (५) षट्क अध्ययन वर्ग. (६) न्याय, (७) आराधना और (८) मार्ग (मोक्ष का उपाय ) ।
जैनागमों में आवश्यक कर्म छह माने गये हैं । वे छह आवश्यक कर्म इस प्रकार हैं(१) सामायिक, ( २ ) स्तवन, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान (त्याग) | षडावश्यकों का साधनात्मक जीवन के लिए क्या महत्त्व है, इस विषय में पं० सुखलालजी कहते हैं - जिन तत्त्वों के होने से ही मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों के जीवन से उच्च समझा जा सकता है और अन्त में विकास की पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है, वे तत्त्व ये हैं- (१) समभाव अर्थात् शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का सम्मिश्रण, (२) जीवन को विशुद्ध बनाने के लिए सर्वोपरि जीवनवाले महात्माओं को आदर्श के रूप में पसन्द करके उनकी ओर सदा दृष्टि रखना, (३) गुणवानों का बहुमान
१-६. विशेषावश्यकभाष्य टीका ( कोट्याचार्य) - उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ० ६१-६२ । अनुयोगद्वारसूत्र उद्धृत श्रमणसूत्र पृ० ६३ ।
७.
८. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ० १८३-१८४ ।
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