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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन इस आक्षेप के उत्तर के पूर्व हमें निवृत्ति के वास्तविक रूप को जानना होगा । निवृत्ति का अर्थ है अशुभ, पापकारी या हिंसक कार्यों से दूर होना । जैन ही क्यों, किसी भी निवृत्तिपरक आचार व्यवस्था ने कभी शुभ, अहिंसक, परोपकारी कार्यों का निषेध नहीं किया है । निवृत्ति का अर्थ संसार से या समाज से पलायन नहीं है । सामान्य विचारक को वह संसार से पलायन इसलिए दिखाई देता है कि इस जगत् में प्रवृत्ति के नाम पर जो स्वार्थ एवं स्वहित की धारणा और हिंसक आचरण का वर्चस्व है, साधक उससे अपने को दूर कर लेता है । दूसरे निवृत्तिपरक आचरण साधक की सामंजस्य -- क्षमता के अभाव का परिचायक नहीं है, वरन् साधक स्वयं उसे करना नहीं चाहता है, क्योंकि वह उसे विकास की सही दिशा नहीं मानता । ३९० इसे निराशावादिता भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि साधक चरम लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है । साथ ही पूर्णता प्राप्ति का यह लक्ष्य सहज प्राप्य नहीं है | अतएव ऐसे मार्ग के पथिक में साहस का अभाव नहीं हो सकता, वरन् उसके हृदय में तो साहस का सागर हिलोरें मारता है । वैराग्यवादी धारणा को सामाजिक हित में घातक मानना भी उचित नहीं, क्योंकि प्रथम तो वैराग्य का लक्ष्य आत्म-विकास के साथ ही जन कल्याण भी रहता है । साधक का एक काम यह भी है कि वह साधना के द्वारा जिस सत्य को प्राप्त करे, उसे उस समाज को भी बताये जिसके द्वारा अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । जैन साधु के लिए यह आवश्यक है कि वह लोगों को सन्मार्ग बताये । समाज में नैतिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए ये साधक प्रहरी और प्रेरणासूत्र होते हैं, जो समाज से अल्पतम लेकर नैतिक मूल्यों को जीवित रखते हैं । इस प्रकार श्रमण-साधक समाज हित के घातक नहीं हैं, वरन् वे समाज व्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण सेवा अर्पित करते हैं । वे समाज के सामने कठोर यातनाएँ सहकर कर्तव्यच्युत नहीं होते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं । उनका जीवन 'सादा जीवन उच्च विचार' का प्रतीक बन, समाज के प्राणियों में सद्भावना - सहयोग और परोपकार की वृत्ति जाग्रत् करता है, वे लोगों को स्वार्थ के लिए जीना नहीं सिखाते, वरन् स्व-पर कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं । यदि हम समाज में नेतिक व्यवस्था चाहते हैं, सद्गुणों का विकास चाहते हैं, आपस में छीना-झपटी समाप्त करना चाहते हैं, तो इन निवृत्तिपरक जीवन बिताने वाले साधकों के महत्त्व को समझना होगा । लोग निवृत्तिपरक जीवन जीने वाले साधकों को समाज पर भार समझते हैं । उन्हें सामाजिक श्रम का शोषक कहा जाता है । उन लोगों को छोड़कर, जो केवल साधुवृत्ति के नाम पर पेट पालते हैं, सच्चे साधु या साधक को समाज के श्रम का शोषक नहीं कहा जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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