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________________ श्रमण-धर्म ३८९ विकास की आचार पद्धतियों में आत्मा को शरीर से परे माना जाना आवश्यक है। साधक कठोर नैतिक नियमों के पालन से उत्पन्न कष्टों को इसलिए सहन करता है कि शारीरिक कष्ट का उसकी आत्मा से कोई संबंध नहीं, वे उसकी आत्मा को सुखी-दुखी नहीं कर सकते इस तथ्य को समझ सके । वह कष्टों को निमंत्रण देकर इस बात की परीक्षा करता रहता है कि वह कितने अधिक रूप में शरीर और आत्मा के द्वैत की बात अपना सका है । आचरण की कठोरता सापेक्ष है । आचरण का कौन सा नियम कठोर है, यह नहीं कहा जा सकता । जो आचरण का नियम एक व्यक्ति को कठोर लगता है वह दूसरे के लिए सरल हो सकता है । जैन साधुओं का यह नियम होता है कि वे वाहन का उपयोग नहीं करते, वरन् सभी ऋतुओं में नंगे पांव पैदल चलते हैं । अब यह नियम उस व्यक्ति के लिए, जिसने गृहस्थ जीवन में एक मील भी पैदल यात्रा नहीं की हो, कठोर होगा और उस किसान के लिए, जो रात-दिन पैदल चलता था, आसान होगा । एक प्रकार का आचरण व्यक्ति को उस प्रकार के अभ्यास के पूर्व कठोर लगता है, लेकिन वही आचरण अभ्यास के बाद उसी व्यक्ति को सरल लगता है। जैन साधु अपने केशों का मुण्डन नहीं करवाते वरन् अपने हाथों से उखाड़ते हैं । नवदीक्षित साधु इसमें पीड़ा का अनुभव करते हैं, लेकिन २-४ वर्षों के पश्चात् देखने में आता है कि उन्हें किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता । वे हँसते-हँसते केश लुंचन कर लेते हैं । सामान्य व्यक्ति के लिए एक समय का भोजन छोड़ देना कठिन मालूम होता है, लेकिन ऐसे लोग भी देखने में आते हैं, जो ८-१० दिनतक निराहार और निर्जल रहकर भी जीवन के सामान्य क्रमों का यथावत् सम्पादन करते हैं । कठोरता का मापदंड स्थिर नहीं रखा जा सकता, वह तो व्यक्ति के साहस, अभ्यास ओर क्षमता पर निर्भर है । जो लोग जैनाचार विधि को अत्यन्त कठोर बताते हैं उनका मापदंड अपना है । वे अभ्यास या आत्मसाहस की होनता में ऐसा समझ बैठे हैं । वे स्वयं को उस परिस्थिति में रखने के बाद विचार करें तो उन्हें कठिन नहीं लगेगा । जैनाचार विधि में श्रमण के सामान्य आचरणात्मक सिद्धान्तों पर किये जाने वाले आक्षेपों में प्रथम आक्षेप उसकी निवृत्तिपरकता पर किया जाता है। पाश्यात्त्य विचारकों ने इस वैराग्यवादी धारणा की कटु आलोचना की है । उसे व्यक्ति की सांसारिक परिस्थितियों से समायोजित करने की क्षमता का अभाव माना है । उनकी दृष्टि में निवृत्तिपरक आचार-व्यवस्था एक प्रकार की नैराश्यवादी मान्यता है, जो व्यक्ति के साहस को कुंठित करती है । इसे मानव जाति के विकास के हेतु घातक माना गया है और पलायनवादी मनोवृत्ति कहकर इसकी आलोचना की गयी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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