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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
अत्यधिक बौद्धिक कहकर, उनकी आलोचना की गयी है ।
जहाँ तक अहिंसा के सिद्धान्त की बात है, वह अत्यधिक बौद्धिकता पर आधारित नहीं माना जा सकता । अहिंसा का मूल करुणा, अनुकम्पा, समानता की भावना और प्रेम है जो बौद्धिकता की अपेक्षा अनुभूति का विषय है, फिर इन पर आधारित नियम अतिबौद्धिक कैसे हो सकते हैं ?
अहिंसा के आधार पर निर्मित जैनसाधु-जीवन के नैतिक नियमों की कठोरता के विषय में जो आक्षेप है उसका परिमार्जन आवश्यक है । जहाँ तक जैन आचार विधि के नैतिक नियमों को कठोरता की बात है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता । आलोचकों के इस कथन में सत्यता का अंश अवश्य है । भगवान् बुद्ध ने भी गृधनाम पर्वत पर जैन भिक्षुओं के कठोर आचरण तथा तपस्यादि देखकर उन भिक्षुओं के सम्मुख ही इस शारीरिक कष्ट देने की पद्धति की आलोचना की थी ।
इस आक्षेप का उत्तर कठोर आचरण के मूल्य को समझे बिना नहीं दिया जा सकता, यद्यपि इस प्रयास में हम आक्षेप के मुद्दे से थोड़े दूर होगें लेकिन यह आवश्यक है ।
जैन आचार-पद्धति के इतिहास में हमने देखा था कि मध्यवर्ती जैन तीर्थकरों के युग में आचरण के नियमों में इतनी कठोरता नहीं थी, लेकिन जब मनुष्य में छल और प्रवंचना की वृत्ति अधिक विकसित हो गयी तब महावीर को कठोर नियमों का विधान करना पड़ा । मनुष्य भोगों में आसक्ति रखता है और यदि उस ओर जाने के लिए थोड़ासा भी मार्ग मिला तो वह भोगों में गृद्ध हो आध्यात्मिक साधना तज देता है । बुद्ध ने आचरण के कठोर नैतिक नियम नहीं दिये, किन्तु इसका जो परिणाम बौद्ध श्रमण संस्था पर हुआ वह हमारे सामने है । उसी पवित्र बौद्ध संघ की संतान के रूप में वामाचार मार्ग जैसे अनैतिक और आचार भ्रष्ट सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ । व्यवस्थित कठोर नैतिक नियमों के अभाव में वैदिक साधु-समाज की क्या स्थिति है, यह छिपा नहीं है । यदि जैन संघ व्यवस्था में कठोर नैतिक नियमों का अभाव होता तो वह भी पतन के मार्ग में इनसे आगे निकल गयी होती ।
मन की चंचलवृत्ति जब छल और प्रवंचना से युक्त हो जाती है तो उसके निरोध के लिए कठोर नैतिक नियम आवश्यक हो जाते हैं । इन्द्रियां अपने विषयों की प्राप्ति के लिए बिना विवेक के प्रयत्न करती रहती हैं । यदि कठोर नैतिक नियमों के पालन के द्वारा उन पर संयम नहीं रखा जाय तो वे व्यक्ति का अहित कर डालती हैं ।
कठोर आचार या शारीरिक कष्ट सहने का दूसरा पहलू है आत्मा और शरीर के एक मानने की भ्रान्ति को दूर करना । आध्यात्मिक साधना में यह आवश्यक हैं कि आत्मा को शरीर से भिन्न समझा जाय । सामान्य रूप से लोग शरीर और आत्मा को पृथक् नहीं मानते और शरीरिक पीड़ा और सुख को वास्तविक मान बैठते हैं । आत्म
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