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________________ श्रमण-धर्म बौद्ध परम्परा में आदर्श श्रमण का स्वरूप अप्रमत्त, बौद्ध परम्परा में सुत्तनिपात और धम्मपद में आदर्श श्रमण के स्वरूप का वर्णन है । सुत्तनिपात का कथन है- संगति से भय उत्पन्न होता है और गृहस्थी से राग । इसलिए मुनि ने पसन्द किया एकान्त और गृहहीन जीवन । जो उत्पन्न (पाप) को उच्छिन्न कर फिर उसे होने नहीं देता, जो उत्पन्न होते पाप को बढ़ने नहीं देता, उस एकान्तचारी शान्तिपद द्रष्टा महर्षि को मुनि कहते हैं । वस्तुस्थिति का बोधकर जिसने (संसार के ) बीज को नष्ट कर दिया है, जो उसकी वृद्धि के लिए तरावट नहीं पहुँचाता, जो बुरे वितर्कों को त्याग कर अलौकिक हो गया है, आवागमन से मुक्त उस महात्मा को मुनि कहते हैं । मुनि सभी सांसारिक अवस्थाओं को जानकर उनमें से किसी एक की भी आशा नहीं करता । तृष्णा और लोलुपता से रहित वह मुनि पुण्य और पाप का संचय नहीं करता, क्योंकि वह संसार से परे हो गया है । जिसने सबको अविभूत किया है, जान लिया है, जो बुद्धिमान् है, जो सब बातों में अलिप्त रहता है, जिसने सबको त्यागा है और तृष्णा का क्षय कर मुक्त हुआ है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं । एकचारी, निन्दा - प्रशंसा से अविचलित, शब्द से त्रस्त न होने वाले, सिंह की तरह किसी से भी त्रस्त न होनेवाले, जाल में न फँसने वाली वायु की तरह कहीं भी न फँसनेवाले, जल से अलिप्त पद्मपत्र की तरह कहीं भी लिप्त न होने वाले, दूसरों को मार्ग दिखाने वाले, दूसरों के अनुयायी न बनने वाले, उस ज्ञानीजन को मुनि कहते हैं । जो खम्भे की तरह स्थिर है, जिस पर औरों की निन्दा - प्रशंसा का प्रभाव नहीं पड़ता, जो वीतराग और संयतइन्द्रिय है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं । जो तसर की तरह ऋजु और स्थिर चितवाला है, जो पापकर्मों से परहेज करता है, और जो विषमता तथा समता का ख्याल रखता है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं । जो संयमी हैं और पाप नहीं करता, जो आरम्भ और मध्यम वय में संयत रहता है, जो न स्वयं चिढ़ता है और न दूसरों को चिढ़ाता है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं । जो अग्रभाग, मध्यभाग या अवशेषभाग से भिक्षा लेता है, जिसकी जीविका दूसरों के दिये पर निर्भर है, और जो दायक की निन्दा या प्रशंसा नहीं करता, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं । जो मैथुन से विरक्त हो एकाकी विचरण करता हैं, जो यौवन में भी कहीं आसक्त नहीं होता और मद-प्रमाद से है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं । जिसने संसार को जान लिया है, जो परमार्थदर्शी है, जो संसार रूपी बाढ़ और समुद्र को पारकर स्थिर हो गया है, उस छिन्न ग्रंथिवाले को ज्ञानीजन मुनि कहते हैं ।" विरक्त तथा विप्रमुक्त जैन श्रमणाचार पर आक्षेप और उनका उत्तर अहिंसा पर निर्मित जैन नैतिक नियमों को अत्यन्त कठोर, अव्यावहारिक और १. सुत्तनिपात, १२।१-१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only ३८७ www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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