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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन रहित, संयम में दृढ़तापूर्वक विचरने वाला, असंयम से निवृत्त, शास्त्रज्ञ, आत्मरक्षक, बुद्धिमान्, परीषहजयी, समदर्शी, किसी भी वस्तु में मूर्छा नहीं करनेवाला भिक्षु कहलाता है । कठोर वचन और प्रहार को जानकर समभाव से सहे, सदाचरण में प्रवत्ति करे, सदा आत्मगुप्त रहे, जो अव्यग्र मन से संयममार्ग में आनेवाले कष्टों को समभाव से सहन करता है, वही भिक्षु है। जीर्ण शय्या और आसन तथा शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि अनेक प्रकार के परीषहों के उत्पन्न होने पर अव्यग्र मन से सब कष्टों को सहन करता है, वही भिक्ष है । जो पूजा-सत्कार नहीं चाहता, वन्दना-प्रशंसा का इच्छुक नहीं है, वह संयती, सुव्रती, तपस्वी, आत्मगवेषी और सम्यग्ज्ञानी ही भिक्ष कहलाता है। जिनकी संगति से संयमी जीवन का नाश और महामोह का बंध होता है, ऐसे स्त्री पुरुषों की संगति को जो तपस्वी सदा के लिए छोड़ देता है, जो कुतूहल को प्राप्त नहीं होता, वही भिक्ष है। जो छेदन विद्या, स्वर विद्या, भूकम्प, अंतरिक्ष, स्वप्न लक्षण, दंड, वास्तु, अंगविचार, पशुपक्षियों की बोली जानना, इन विद्याओं से अपनी आजीविका नहीं करता-वही भिक्षु है । जो मंत्र, जड़ी-बूटी, विविध वैद्यप्रयोग, वमन, विरेचन धूम्रयोग, आंख का अंजन, स्नान, आतुरता, माता-पितादि का शरण और चिकित्सा इन सबको ज्ञान से हेय जानकर छोड़ देते हैं; क्षत्रिय, मल्ल, उग्रकुल, राजपुत्र, ब्राह्मण, भोगिक और विविध प्रकार के शिल्पी, इनकी प्रशंसा और पूजा नहीं करता, इनकी सदोषता जानकर त्याग देता है, वही भिक्ष है। जो दीक्षा लेने के बाद या पहले जिन गृहस्थों को देखा हो, परिचय हुआ हो, उनके साथ इहलौकिक फल की प्राप्ति के लिए विशेष परिचय नहीं करता, वही भिक्षु है। गृहस्थ के यहाँ आहार, पानी, शय्या, आसन तथा अनेक प्रकार के खादिम-स्वादिम होते हुए भी वह नहीं दे
और इनकार कर दे तो भी उस पर द्वेष न करे, वही निर्ग्रन्थ भिक्षु है । गृहस्थों के यहाँ से आहार-पानी और अनेक प्रकार के खादिम स्वादिम प्राप्त करके जो बालवृद्धादि साधुओं पर अनुकम्पा करता है, मन, वचन और काया को वश में रखता है, ओसामण, जौ का दलिया, ठंडा आहार, कांजी का पानी, जौ का पानी और नीरस आहारादि के मिलने पर जो निन्दा नहीं करता तथा प्रान्तकुल में गोचरी करता है, वही भिक्षु है । लोक में देव-मनुष्य और तियंच संबंधी अनेक प्रकार के महान् भयोत्पादक शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो चलित नहीं होता, वही भिक्ष है। लोक में प्रचलित अनेक प्रकार के वादों को जानकर जो विद्वान् साधु आत्महित में स्थिर होकर संयम में दृढ़ रहता है और परीषहों को सहन करता है तथा सब जीवों को अपने समान देखता हुआ उपशान्त रहकर किसी का बाधक नहीं बनता, वही भिक्षु है। अशिल्पजीवी, गृहरहित, मित्र और शत्रु से रहित, जितेन्द्रिय, सर्वथा मुक्त, अल्पकषायी, अल्पाहारी, परिग्रहत्यागी होकर जो एकाकी राग-द्वेष रहित विचरता है, वही भिक्ष है।' १. उत्तराध्ययन, १५।१-१६ ।
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