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________________ श्रमण-धर्म ३८५ शोभा को त्यागता है, तथा गाली सुनकर, मार खाकर, या कुत्ते आदि के काटनेपर भी जो पृथ्वी के समान क्षमाशील सब कुछ सह लेनेवाला होता है, तथा जो किसी प्रकार का निदान-नियाण नहीं करता है और कुतूहल देखने-सुनने की तीव्र इच्छा से दूर रहता है, वह मुनि भावसाधु है। फिर शरीर से परोषहों को जीतकर जो साधु जन्ममरणरूप संसारमार्ग से अपनी आत्मा को ऊपर उठा लेता है और जन्ममरण को अत्यन्त भयंकर समझकर श्रमणाचार व तप में लगा रहता है, वही भावभिक्षु है। जो साधु हाथों से संयत है, चरणों से संयत है, तथा वचनों से संयत है, और संयतेन्द्रिय-इन्द्रियोंसे संयत है, तथा जो धर्मध्यान में लगा रहने वाला और समाधियुक्त आत्मा वाला है, तथा जो सूत्रार्थों को समझता है, वह भावसाधु है । जो साधु अपने वस्त्र-पात्र आदि भण्डोपकरणों में भी ममता और प्रतिबन्धरूप लोभ से रहित है, तथा बिना परिचय के घरों में भिक्षा के लिए जाता है, व संयम को निस्सार बनानेवाले पुलाक व निष्पुलाक दोषों से दूर रहता है, तथा खरीद, बिक्री व संचय आदि से विरत रहता है, और जो सब प्रकार के संगों से मुक्त है, वह साधु भावभिक्षु है । जो साधु नहीं मिली हुई चीजों में लोलुपता नहीं रखता तथा मिले हुए रसों में आसक्ति भी नहीं रखता है और भावविशुद्ध गोचरी करता है, तथा जो असंयमी-जीवन को नहीं चाहता है, और जो स्थिरचित होकर लब्धिरूप ऋद्धि, वस्त्रादि के सत्कार तथा स्तुति आदि से पूजा की भी आशा नहीं रखता है, वह भावसाधु है । फिर जो साधु दूसरे को यह कुशील है ऐसा नहीं कहता, और जिससे कोई क्रुद्ध हो ऐसा वचन नहीं बोलता है, जो गुणों के होते हुए भी अभिमान नहीं करता है, वह भावभिक्षु है । जोसाधु न जाति से मत्त बनता और न रूप से, तथा जो लाभ में भी मद नहीं करता व श्रुतज्ञानका भी अभिमान नहीं रखता है, और जो सब प्रकार के गों को छोड़कर धर्मध्यान में लगा रहता है, वह भावभिक्षु है । जो महामुनि सच्चे धर्म का ही मार्ग बताता है, जो स्वयं सद्धर्म पर स्थिर रहकर दूसरों को भी सद्धर्म पर स्थिर करता है, त्याग मार्ग ग्रहण कर दुराचारों के चिह्नों को त्याग देता है (अर्थात् कुसाधु का संग नहीं करता) तथा किसी के साथ ठिठोली, मसखरी आदि नहीं करता वही सच्चा भिक्षु है। (ऐसा भिक्षु क्या प्राप्त करता है ?) ऐसा आदर्श भिक्षु सदैव कल्याणमार्ग में अपनी आत्मा को स्थिर रखकर नश्वर एवं अपवित्र देहावास को छोड़कर तथा जन्मरण के बंधनों को सर्वथा काटकर अपुनरागति मोक्ष को प्राप्त होता है।' इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में भी 'सभिक्षु' नामक अध्ययन में आदर्श भिक्ष जीवन का परिचय वर्णित है । जिसने विचारपूर्वक मुनि वृत्ति अंगीकार की, जो सम्यग्दर्शनादि से युक्त, सरल, निदानरहित, संसारियों के परिचय का त्यागी, विषयों की अभिलाषारहित और अज्ञात कुलों की गोचरी करता हुआ विचरता है वही भिक्षु कहलाता है । राग १. दशवकालिक, अध्ययन १० । २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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