________________
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
और उत्तराध्यनसूत्र में तथा बौद्धों के धम्मपद और सुत्तनिपात में इसका सविस्तार विवेचन है कि आदर्श भिक्षु कैसा होना चाहिए । आगे के पृष्ठों में हम उन्हीं आधारों पर आदर्श श्रमण की जीवन-शैली का विवेचन करेंगे । यह विवेचना न केवल आदर्श श्रमण के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक है वरन् दोनों परम्पराओं में जो साम्य है उसे अभिव्यक्त करने के लिए भी आवश्यक है ।
आदर्श जैन श्रमण का स्वरूप
बुद्धिमान् पुरुषों के उपदेश से अथवा अन्य किसी निमित्त से गृहस्थाश्रम को छोड़कर जो त्यागी भिक्षु सदैव ज्ञानी महापुरुषों के वचनों में लीन रहता है, उनकी आज्ञानुसार ही आचरण करता है, नित्य चित्त समाधि में लगाता है, स्त्रियों के मोहजाल में नहीं फँसता और वमन किये हुए भोगों को फिर भोगने की इच्छा नहीं करता, वही आदर्श भिक्षु है । जो साधु ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर के उत्तम वचनों में रुचि रखते हुए सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों प्रकार के षट् जीवनिकायों ( प्रत्येक प्राणिसमूह ) को आत्मवत् मानता है, पांच महाव्रतों का धारक होता है और पांच प्रकार के पापाचारों ( मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद तथा अशुभयोग के व्यापार ) से रहित होता है, वही आदर्श साधु है । जो ज्ञानी साधु, क्रोध, मान, माया और लोभ का सदैव वमन करता रहता है, ज्ञानी पुरुषों के वचनों में अपने चित्त को स्थिर लगाये रहता है, और सोना, चांदी, इत्यादि धनको छोड़ देता है वही आदर्श साधु है । जो मूढ़ता को छोड़कर अपनी दृष्टि को शुद्ध (सम्यग्दृष्टि ) रखता है; मन, वचन और काय का संयम रखता है; ज्ञान, तप और संयम में रह कर तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय करने का प्रयत्न करता है, वही आदर्श भिक्षु है । तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के आहार, पानी, खाद्य तथा स्वाद्य आदि सुन्दर पदार्थों की भिक्षा को कल या परसों के लिए संचय करके नहीं रखता और न दूसरों से रखवाता ही है, वही आदर्श भिक्षु है । जो साधु कलहकारिणी, द्वेषकारिणी तथा पीड़ाकारिणी कथा नहीं कहता, निमित्त मिलने पर भी किसी पर क्रोध नहीं करता, इन्द्रियों को निश्चल रखता है, मन को शान्त रखता है, संयम में सर्वदा लीन रहता है तथा उपशम भाव को प्राप्त कर किसी का तिरस्कार नहीं करता, वही आदर्श भिक्षु है । जो कानों को काँटे के समान दुःख देनेवाले आक्रोश वचनों, प्रहारों और अयोग्य उपालम्भों (उलाहनों) को शान्तिपूर्वक सह लेता है, भयंकर एवं प्रचंड गर्जना के स्थानों में भी जो निर्भय रहता है और सुख तथा दुःख को समभावपूर्वक भोग लेता है, वही आदर्श भिक्षु है । जो साधु मास आदि की प्रतिमा याने अभिग्रह स्वीकार कर श्मशान में अत्यन्त भयंकर दृष्यों को देखकर भी नहीं डरता है, तथा मूलगुण आदि में और तपों में रत रहता है, और ममता से शरीर को भी वर्तमान और भविष्य के लिए नहीं चाहता है, वह भावभिक्षु है । जो साधु अनेक बार कायोत्सर्ग करता है, अर्थात् शरीर की ममता को छोड़कर
३८४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org