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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
अपराध की तीव्रता या मन्दता का निर्णय किया जाता है और तदनुरूप दण्ड दिया जाता है । अतः यह सम्भव है कि ऊपर से समान दिखनेवाले दोष के लिए भी भिन्नभिन्न प्रायश्चित्त हो सकते हैं। जैन-परम्परा में प्रायश्चित्त प्रदान करने का अधिकार आचार्य को होता है, परिस्थिति विशेष में छोटे या सामान्य अपराधों के लिये अन्य पदाधिकारी भी प्रायश्चित्त प्रदान कर सकते हैं। यदि अपराध एवं अपराधी विशेष प्रकार के हों तो सम्पूर्ण संघ भी प्रायश्चित का विधान करता है। पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान सामान्यतया संघ की अनुमति से किया जाता है।' बौद्ध परम्परा में प्रायश्चित्त-विधान___जैन-परम्परा के समान बौद्ध-परम्परा में भी भिक्षुओं के द्वारा विभिन्न नियमों को भंग करने पर प्रायश्चित्त का विधान है । सामान्यतया बौद्ध-परम्परा में आठ प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान उपलब्ध होता है--१. पाराजिक, २. संघादिशेष, ३. नैसर्गिक और ४. पाचित्तिय ५. अनियत ६. प्रतिदेशनीय ७. सेखिय ८. अधिकरण समय ।
पाराजिक प्रायश्चित्त प्रमुख रूप से हिंसा और चोरी के लिए दिया जाता है । बौद्ध-परम्परा में भी पाराजिक प्रायश्चित्त में व्यक्ति भिक्षु संघ से पृथक् कर दिया जाता है । सामान्यतया पाराजिक प्रायश्चित्त के योग्य अपराध निम्न है:- १. संघ में रहकर मैथुन सेवन करना, २. बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करना जिससे चोर समझा जाये, ३. मनुष्य आदि की हत्या करना और ४. बिना जाने और देखे अलौकिक बातों का दावा करना । जैन और बौद्ध परम्पराओं में पाराचिक एवं पाराजिक प्रायश्चित्त के संबंध में समान दृष्टिकोण है।
जिस प्रकार जैन-परम्परा में अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का विधान है, उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में संवादिशेष प्रायश्चित्त का विधान है। बोद्ध-परम्परा में संघादिशेष आपत्ति होने पर भिक्ष को संघ के सन्तोष के लिए भिक्षु आवास के बाहर कुछ रातें बितानी होती हैं और उसके पश्चात् उसे भिक्षु-संघ में पुनः प्रवेश दिया जाता है । इस प्रकार अपने मूल मन्तव्य की दृष्टि से अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त और संघादिशेष प्रायश्चित्त समान ही है । बौद्ध परम्परा में संघादिशेष प्रायश्चित्त के योग्य निम्न १३ आपत्तियाँ मानी गयी हैं।
१. निद्रावस्था को छोड़कर अन्य किसी अवस्था में वीर्यपात करना । २. वासना के वशीभूत होकर स्त्री-शरीर का स्पर्श करना ।
३. वासना के वशीभूत होकर कामुक शब्दों से स्त्री को काम-वासना को प्रदीप्त करना। १, जैन आचार, पृ० २१५.
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