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श्रमण धर्म
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निर्ग्रन्थी को स्थान आदि की सुविधा न देना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना अथवा योग्य को शास्त्र न पढ़ाना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढ़ाना अथवा उससे पढ़ना आदि क्रियाएँ लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त की कारण हैं ।
गुरुचर्तुमासिक के योग्य अपराध - स्त्री अथवा पुरुष से मैथुनसेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुनेच्छा से हस्तकर्म करना, नग्न होना, निर्लज्ज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना, स्तन आदि हाथ में पकड़कर हिलाना अथवा मसलना, पशु-पक्षी को स्त्री अथवा पुरुषरूप मानकर उनका आलिंगन करना, मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ का निमित्त बताना, किसी श्रमण श्रमणी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना, अचेल होकर सचेल के साथ रहना अथवा सचल होकर अचेल के साथ रहना आदि क्रियाएँ गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं । "
छेद का अर्थ दीक्षा - पर्याय में कमी है । इसके कारण अपराधी का श्रमण-संघ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान था वह अपेक्षाकृत नीचा हो जाता है । जो अपराधी तप के अयोग्य है अथवा तप के गर्व से उन्मत्त है अथवा तप प्रायश्चित्त से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान है । विभिन्न अपराधों में उनकी गुरुता के आधार पर विभिन्न समयों की दीक्षा का छेद किया जाता है ।
मूल का अर्थ है पूर्व दीक्षा को समाप्त कर नवीन दीक्षा देना । इसके कारण वह संघ में सबसे निम्न स्थान पर आ जाता है । सामान्यतया पंचेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा एवं मैथुन सम्बन्धी अपराध इस प्रायश्चित्त के कारण माने जाते हैं ।
अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में अपराधी को तत्काल नवीन दीक्षा नहीं देकर कुछ समय तक उसकी परीक्षा की जाती है और संघ के आश्वस्त हो जाने पर अथवा उसके द्वारा प्रायश्चित्त रूप विशिष्ट तप कर लेने के पश्चात् पुनः उसे दीक्षा दी जाती है । सामान्यतया बार-बार अपराध करने वाले अपराधिक प्रकृति के व्यक्तियों को यह दण्ड दिया जाता है | साधर्मिक स्तैन्य, अन्य धार्मिक स्तैन्य मुष्टिप्रहार आदि अपराधों के लिए इस दण्ड की व्यवस्था है ।
पारांचिक प्रायश्चित्त में अपराधी भिक्षु को सदैव के लिए दिया जाता है । जब किसी भी प्रकार अपराधी का सुधार सम्भव में पारांचिक प्रायश्चित्त का दण्ड दिया जाता है ।
जैन - परम्परा में परिस्थिति की भिन्नता एवं अपराधी की मनोवृत्ति के आधार पर
१, निशीथसूत्र में आधार पर - उद्धृत जैनाचार, पृ० २१३-२१४ ।
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संघ से बहिष्कृत कर नहीं दिखता तो अन्त
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