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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
अपराध के पुनः सेवन नहीं करने का निश्चय नहीं होता है, जबकि प्रतिक्रमण में ऐसा निश्चय करना होता है।
अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, कटु भाषण, दुश्चेष्टा आदि अपराधों के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है।
आहार, वस्त्र आदि के ग्रहण में लगे हुए दोषों के लिए विवेक प्रायश्चित्त का विधान है । विवेक नामक प्रायश्चित्त का सामान्य अर्थ यह हो सकता है कि भविष्य में उस संबंध में सावधानी रखी जाय । विवेक का दूसरा अर्थ अशुद्ध आहार आदि का सावधानीपूर्वक परिहार कर देना है।
गमनागमन, स्वप्न और श्रुतसंबंधी दोषों के लिए कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त का विधान है।
इन सामान्य दोषों के अतिरिक्त विशिष्ट अपराधों के लिए तप प्रायश्चित्त का विधान है । निशीथसूत्र में तप प्रायश्चित्त के चार प्रकार मिलते हैं, १. गुरुमासिक, २. लघु मासिक, ३. गुरु चातुर्मासिक और ४. लघु चातुर्मासिक । लघुमासिक या मासलघु प्रायश्चित्त का अर्थ एकासन और गुरु मासिक का अर्थ उपवास है। इसी प्रकार लघु चातुर्मासिक का अर्थ वेला ( लगातार दो दिन तक अन्न-जल का त्याग ) और गुरु चातुर्मासिक का अर्थ तेला ( लगातार तीन दिन तक अन्न जल का त्याग ) है ।
लघुमासिक के योग्य अपराध-दारूदण्ड का पादपोंछन बनाना, पानी निकलने के लिए नाली बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की प्रशंसा करना, निष्कारण परिचित घरों में प्रवेश करना, अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ की संगति करना, शय्यातर अर्थात् आवास देने वाले मकान मालिक के यहां का आहार, पानी ग्रहण करना आदि क्रियाएँ लघुमासिक प्रायश्चित्त के कारण हैं।
गुरुमासिक योग्य अपराध-अंगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, अंगादान को नली में डालना, पुष्पादि सूंघना, पात्र आदि दूसरों से साफ करवाना, सदोष आहार का उपयोग करना आदि क्रियाएँ गुरुमासिक प्रायश्चित्त के कारण हैं।
लघुचातुर्मासिक के योग्य अपराध-प्रत्याख्यान का बार बार भंग करना गृहस्थ के वस्त्र, पात्र, शय्या आदि का उपयोग करना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, अर्धयोजन अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, विरेचन लेना अथवा औषधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को नमस्कार करना, वाटिका आदि सार्वजनिक स्थानों में मल-पेशाब डाल कर गन्दगी करना, गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागार में प्रवेश करना, समान आचारवाले निर्ग्रन्थ
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