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________________ श्रमण धर्म ८. केवल नदी पार होने के अतिरिक्त एक ही नौका पर न बैठे । ९. भिक्षु णी के माध्यम से अथवा उनके आहार लाभ में बाधक बनकर भिक्षा प्राप्त न करे । १०. एकांत में भिक्षुणी के साथ न बैठे । यदि बैठना ही हो तो एक पुरुष और एक स्त्री की उपस्थिति में ही बैठे ।' इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराएं भिक्ष और भिक्षुणियों के पारस्परिक संबंध में काफी सतर्कता रखती हैं और विशेष प्रसंगों के अतिरिक्त उनके पारस्परिक संबंधों का नियमन करती हैं । भिक्षणी-संघ के पदाधिकारी-जैन-परम्परा में साध्वी-संघ यद्यपि आचार्य की आज्ञा में ही रहता है, तथापि भिक्षुणी-संघ की आन्तरिक व्यवस्था के लिए कुछ पृथक् पदों की व्यवस्था है। भिक्षणी-संघ में प्रमुखतया प्रवर्तनी गणावच्छेदिनी अभिषेका और प्रतिहारी पदों की व्यवस्था है । प्रायश्चित्त विधान (दण्ड व्यवस्था) व्रतों में लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त लिया जाता है । संघव्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए भी यह आवश्यक है कि संघ एवं भिक्षुजीवन के विभिन्न नियमों के भंग पर प्रायश्चित्त या दण्ड दिया जाय । श्वेताम्बर परम्परा में जीतकल्पसूत्र के अनुसार दस प्रकार के प्रायश्चित्त या दण्ड माने गये हैं-(१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) उभय, (४) विवेक, (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल (९) अनवस्थाप्य और (१०) पारांचिक ।२ दिगम्बर परम्परा के मूलाचार ग्रंथ में भी दस प्रकार के प्रायश्चित्त वर्णित हैं । प्रारम्भ के आठ वही हैं जो श्वेताम्बर परम्परा में हैं, शेष दो परिहार और बद्धान हैं। सम्भवतः अन्तिम दो प्रायश्चित्तों का प्रचलन बन्द हो जाने से नामों का यह अन्तर आया हो । यद्यपि पारांचिक प्रायश्चित्त और परिहार का तात्पर्य एक ही है ।उपर्युक्त प्रायश्चित्तों में एक क्रम है जो कि आपराधिक गुरुता को सूचित करता है। दैनंदिन जीवन की सामान्य प्रवृत्तियों में लगनेवाले दोषों के लिए आलोचनाप्रायश्चित्त का विधान है। आलोचना का अर्थ अपराध को अपराध के रूप में स्वीकार करना है। प्रमाद, आसातना, अविनय, हास्य, विकथा आदि के लिए प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का विधान है। प्रतिक्रमण का तात्पर्य है उन दोषों को दोष रूप मान कर पुनः उन्हें नहीं करने का निश्चय करना । आलोचना और प्रतिक्रमण में अन्तर यह है कि आलोचना में १. देखिए विनयपिटक-पाचित्तिय धम्म, २।२१-३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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