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________________ ३७२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ( ९ ) माया - छल-कपट से आहार लेना । (१०) लोभ - सरस भिक्षा के लिए अधिक घूमना । ( ११ ) पूर्वपश्चात्संस्तव - दान दाता के माता-पिता अथवा सास-ससुर आदि से अपना परिचय बताकर भिक्षा लेना । ( १२ ) विद्या - जप आदि से सिद्ध होनेवाली विद्या का प्रयोगकरना । (१३) मंत्र - मंत्र - प्रयोग से आहार लेना । (१४) चूर्ण - चूर्ण आदि वशीकरण का प्रयोग करके आहार लेना । (१५) योग - सिद्धि आदि योगविद्या का प्रदर्शन करना । (१६) मूलकर्म - गर्भस्तंभन आदि के प्रयोग बताना । (इ) ग्रहणैषणा के १० दोष – १. शंकित - आधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी लेना । २. म्रक्षित - सचित्त का संघट्टा होने पर आहार लेना । ३. निक्षिप्त- सचित्त पर रक्खा हुआ आहार लेना । ४. पिहित - सचित्त से ढका हुआ आहार लेना । ५. संहृतपात्र में पहले से रखे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकाल कर उसी पात्र से लेना । ६. दायक - शराबी, गर्भिणी आदि अनधिकारी से लेना । ७. उन्मिश्र - सचित्त से मिश्रित आहार लेना । ८. अपरिणत - पूरे तौर पर बिना पके शाकादि लेना । ९. लिप्त - दही, घृत आदि से लिप्त पात्र या हाथ से आहार लेना । के कारण क्रमशः पूर्वकर्म तथा पश्चात्कर्म दोष होता है रहे हों, ऐसा आहार लेना । पहले और पीछे हाथ धोने । १०. छर्दित - छींटे नीचे पड़ (ई) प्रासंषणा के ५ दोष – १. संयोजन - रसलोलुपता के कारण दूध और शक्कर आदि द्रव्यों को परस्पर मिलाना । २. अप्रमाण - प्रमाण से अधिक भोजन करना । ३. अंगार - सुस्वादु भोजन की प्रशंसा करते हुए खाना । यह दोष चारित्र को जलाकर कोयला की तरह निस्तेज बना देता है, अतः अंगार कहलाता है । ४. धूम - नीरस आहार निन्दा करते हुए खाना । ५. अकारण - आहार करने के छ कारणों के सिवाय बलवृद्धि आदि के लिए आहार करना । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ अनगार- धर्मामृत में इन सैंतालीस दोषों में से छियालीस पिण्ड दोषों का विवेचन किया गया है, जो निम्नानुसार है - १६ उद्गम दोष, १६ उत्पादन दोष, १० शंकितादि दोष और ४ अंगारादि दोष । को अपने भोजन में स्वाद - लोलुपता न रख कर मात्र आहार आदि ग्रहण करना चाहिए । भोजन के संबंध में मुनि चाहिए कि जीने के लिए खाना है न कि खाने के लिए जीना है । वस्त्र मर्यादा - दिगम्बर- परम्परा के अनुसार मुनि को वस्त्र रहित अर्थात् अचेल रहना चाहिए । उसमें मुनि लिए वस्त्रों का उपयोग सर्वथा निषिद्ध है । यद्यपि श्रमणी के लिए वस्त्र का विधान है । श्वेताम्बर परम्परा में भी वस्त्ररहित जिनकल्पी १. देखिए पिण्डनिर्युक्ति - उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ० ४७८-४८१ Jain Education International संयमपालन के लिए का आदर्श यह होना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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