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________________ अमण-धर्म ३७३ मुनियों का वर्णन है, लेकिन इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर परम्परा के आचारांगसूत्र में मुनियों । के लिए एक से तीन तक के वस्त्रों तक का विधान है। श्रमणी के लिए चार वस्त्रों तक का विधान है। बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार मुनि के लिए पाँच प्रकार के वस्त्रों का उपयोग करना कल्प्य माना गया है-१ जांगिक (ऊनादि के वस्त्र), २. भांगिक (अलसी का वस्त्र), ३. सानक (सन का वस्त्र), ४. पोतक (कपास का वस्त्र), ५. तिरीटपट्टक (छाल का वस्त्र) । मुनि के लिए कृत्स्न वस्त्र और अभिन्न वस्त्र का उपयोग वर्जित है। कृत्स्न वस्त्र का अर्थ है रंगीन एवं आकर्षक वस्त्र; अभिन्न वस्त्र का अर्थ है अखण्ड या पूरा वस्त्र । अखण्ड वस्त्र का निषेध इस लिए किया गया है कि वस्त्र का विक्रय मूल्य या साम्पत्तिक मूल्य न रहे । भिक्षु के लिए खरीदा गया, धोया गया आदि दोषों से युक्त वस्त्र ग्रहण करने का भी निषेध है, इसी प्रकार बहुमूल्य वस्त्र भी मुनि के लिए निषिद्ध हैं। प्रसाधन के निमित्त वस्त्र का रंगना, धोना आदि भी मुनि के लिए वजित है। पात्र-श्रमण एवं श्रमणियों के लिए तुम्बी, काष्ठ एवं मिट्टी के पात्र कल्प्य माने गये हैं, किसी भी प्रकार के धातु-पात्र का रखना निषिद्ध है । सामान्यतया मुनि के लिए एक पात्र रखने का विधान है। लेकिन वह अधिक से अधिक तीन पात्र तक रख सकता है। बृहत्कल्पसूत्र में श्रमणियों के लिए घटीमात्रक (धड़ा) रखने का विधान भी है । इसी प्रकार व्यवहारसूत्र में वृद्ध साधु के लिए भाण्ड (घड़ा) और मात्रिका (पेशाब करने का बर्तन) रखना भी कल्प्य है। मुनि के लिए जिस प्रकार बहुमूल्य वस्त्र लेने का निषेध है उसी प्रकार बहुमूल्य पात्र लेने का भी निषेध है। वस्त्र और पात्र की गवेषणा के संबंध में अधिकांश नियम वही हैं जो कि आहार की गवेषणा के लिए हैं। आवास संबन्धी नियम-मुनि अथवा मुनियों के लिए बनाये गये, खरीदे गये अथवा अन्य ढंग से प्राप्त किये गये मकानों में श्रमण एवं श्रमणियों का रहना निषिद्ध है। बहुत ऊँचे मकान, स्त्री, बालक एवं पशु के निवास से युक्त मकान, वे मकान जिसमें गृहस्थ निवास करते हों, जिनका रास्ता गृहस्थ के घर में से होकर जाता हो एवं चित्रयुक्त मकान में निवास करना मुनि के लिए निषिद्ध है । इसी प्रकार धर्मशाला, बिना छत का खुला हुआ मकान, वृक्षमूल एवं खुली जगह पर रहना भी सामान्यतया मुनि के लिये निषिद्ध है, यद्यपि विशेष परिस्थितियों में वह वृक्षमूल में निवास कर सकता है। श्रमणी के लिए सामान्यतया वे स्थान जिनके आसपास दूकानें हों, जो गली के एक किनारे पर हो, जहाँ अनेक रास्ते मिलते हों तथा जिनमें द्वार नहीं हो, अकल्प्य माने गये हैं। जैन भित्त-जीवन के सामान्य नियमों की बौद्ध नियमों से तुलना :-जैन भिक्षु-जीवन के सामान्य नियमों में ब्रह्मचर्य, अचौर्य आदि नियम जैन और बौद्ध परम्पराओं में समान ही हैं । बौद्ध भिक्षु ग्राम अथवा जंगल में कहीं भी सिवाय पानी और दतौन के कोई भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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