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अमण-धर्म
की सेवा के लिए, ३. ईर्यापथ अर्थात् मार्ग में गमनागमन की निर्दोष प्रवृत्ति के लिए, ४. संयम अर्थात् मुनिधर्म की रक्षा के लिए, ५. प्राणप्रत्यय अर्थात् जीवनरक्षा के लिए और ६. धर्मचिन्ता अर्थात् स्वाध्यायादि के लिए ।' __ आहार-त्याग के छ: कारण-छः स्थितियों में मुनि के लिए आहार ग्रहण करना वर्जित माना गया है-१. आतंक अर्थात् भयंकर रोग उत्पन्न होने पर, २. उपसर्ग अर्थात् आकस्मिक संकट आने पर, ३. ब्रह्मचर्य अर्थात् शील की रक्षा के लिए, ४. प्राणिदया अर्थात् जीवों की रक्षा के लिए, ५. तप अर्थात् तपस्या के लिएऔर ६. संलेखना अर्थात् समाधिकरण के लिए।२ इस प्रकार मुनि संयम के पालन के लिए ही आहार ग्रहण करता है और संयम के पालन के लिए ही आहार का त्याग करता है। ___ आहार संबंधी दोष-जैन आगमों में मुनि के आहार संबंधी विभिन्न दोषों का विवेचन मिलता है । संक्षेप में वे दोष निम्न हैं ।
(अ) उद्गम के १६ दोष-१. आधाकर्म विशेष साधु के उद्देश्य से आहार बनाना, २. औद्देशिक-सामान्य भिक्षुओं के उद्देश्य से आहार बनाना, ३. पूतिकर्म-शुद्ध आहार को अशुद्ध आहार से मिश्रित करना, ४. मिश्रजात-अपने लिए व साधु के लिए मिलाकर आहार बनाना, ५. स्थापना-साधु के लिए कोई खाद्य पदार्थ अलग रख देना, ६. प्राभृतिका-साधु को पास के ग्रामादि में आया जानकर विशिष्ट आहार बहराने के लिए जीमणवार आदि का दिन आगे-पीछे कर देना। ७. प्रादुगष्करणअन्धकारयुक्त स्थान में दीपक आदि का प्रकाश करके भोजन देना । ८. क्रीत-साधु के लिए खरीद कर लाना । ९. प्रामित्य-साधु के लिए उधार लाना । १०. परिवर्तितसाधु के लिए अट्टा-सट्टा करके लाना । ११. अभिहत-साधु के लिए दूर से लाकर देना । १२. उद्भिन्न-साधु के लिए लिप्त पात्र का मुख खोलकर घृत आदि देना। १३. मालापहृत-ऊपर की मंजिल से या छों के वगैरह से सीढ़ी आदि से उतार कर देना। १४. आच्छेद्य-दुर्बल से छीन कर देना । १५. अनिसृष्ट-साझे की चीज दूसरों की आज्ञा के बिना देना । १६. साधु को गाँव में आया जानकर अपने लिए बनाये जानेवाले भोजन में और बढ़ा देना।
(आ) उत्पादनके १६ दोष-(१) धात्री-धाय की तरह गृहस्थ के बालकों को खिलापिला कर, हंसा-रमा कर आहार लेना । (२) दूती-दूत के समान संदेशवाहक बनकर आहार लेना। (३) निमित्त-शुभाशुभ निमित्त बताकर आहार लेना । (४) आजीवआहार के लिए जाति, कुल आदि बताना। (५) वनीपक-गृहस्थ की प्रशंसा करके भिक्षा लेना । (६) चिकित्सा-औषधिआदि बताकर आहार लेना । (७)क्रोध-क्रोध करना या शापादि का भय दिखाना । (८) मान-अपना प्रभुत्व जमाते हुए आहार लेना। १. उत्तराध्ययन, २६॥३३ ।
२. वही, २६।३५ ।
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