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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
१. आवश्यकीय-साधु आवश्यक कार्य होने पर ही उपाश्रय (निवासस्थान) से बाहर जाये । अनावश्यक रूप से आवागमन नहीं करे ।
२. नैषैधिकी-उपाश्रय में आने पर यह विचार करे कि मैं बाहर के कार्यों से निवृत्त होकर आया हूँ । अब नितांत आवश्यक कार्य के सिवाय मेरे लिए बाहर जाना निषिद्ध है।
३. आपृच्छना-अपना कोई भी कार्य करने के लिए गुरु एवं गणनायक की आज्ञा प्राप्त करे।
४. प्रतिपृच्छना-दूसरे के कार्य को गुरु एवं गणनायक से पूछकर करे ।
५. छन्दना-अपने उपभोग के निमित्त लाये गये भिक्षादि पदार्थों के लिये अपने सभी साथी-साधुओं को आमंत्रित करे । अकेला चुपचाप उनका उपभोग न करे ।
६. इच्छाकार-गण के साधुओं की इच्छा जानकर तदनुकुल आचरण करे ।
७. मिथ्याकार-प्रमादवश कोई गलती हो जाए तो उसके लिए पश्चात्ताप करे तथा नियमानुसार प्रायश्चित ग्रहण करे ।
८. प्रतिश्रुत तथ्यकार-आचार्य, गणनायक, गुरु एवं बड़े साधुओं की आज्ञा स्वीकार करना और उसे उचित मानना ।
९. गुरूपूजा अभ्युत्थान-वंदना आदि के द्वारा गुरु का सत्कार-सम्मान करना।
१०. उपसम्पदा-आचार्य आदि की सेवा में विनम्रभाव से रहते हुए दिनचर्या करना।
दिनचर्या संबंधी नियम--मुनि की दिनचर्या के विधान के लिए दिन एवं रात्रि को चार-चार भागों में विभक्त किया गया है जिन्हें प्रहर कहा जाता है । उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार मुनि दिन के प्रथम प्रहर में आवश्यक कार्यों के पश्चात् स्वाध्याय करे, दूसरे प्रहर में ध्यान करे, तीसरे प्रहर में भिक्षा द्वारा आहार ग्रहण करे और पुनः चौथे प्रहर में स्वाध्याय करे । इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में निद्रा और चौथे प्रहर में पुनः स्वाध्याय करे । इस प्रकार मुनि की दिनचर्या में चार प्रहर स्वाध्याय के लिए, दो प्रहर ध्यान के लिए तथा एक-एक प्रहर आहार और निद्रा के लिए नियत है।
आहार-संबंधी नियम-जैन आचार-दर्शन में श्रमण के आहार के संबंध में कई दृष्टियों से विचार हुआ है तथा विभिन्न नियमों का प्रतिपादन किया गया है । मुनि को आहार संबंधी निम्न नियमों का पालन करना चाहिए___ आहार ग्रहण करने के छः कारण-मुनि को छः कारणों से आहार ग्रहण करना चाहिये-१. वेदना अर्थात् क्षुधा की शान्ति के लिए, २. वैयावृत्य अर्थात् आचार्यादि
१. विस्तृत विवेचन के लिये देखिए-उत्तराध्ययन, २६।८-५३ ।
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