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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
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सकता है । लेकिन उपसम्पदा देने के लिए पांच अथवा दस भिक्षुओं के भिक्षु संघ का होना आवश्यक है, क्योंकि उपसम्पदा जैन - परम्परा के छेदोपस्थापनीय चारित्र के समान भिक्षु की संघ में प्रविष्टि है । संघ ही व्यक्ति को संघ में प्रवेश दे सकता है, व्यक्ति नहीं । बौद्ध परम्परा में भी व्यक्ति की संघ में वरिष्ठता एवं कनिष्ठता उसकी उपसम्पदा की तिथि से ही मानी जाती है । प्रतिक्रमण कल्प के समान बौद्ध धर्म में प्रवारणा की व्यवस्था है, जिसमें प्रति पन्द्रहवें दिन भिक्षु संघ एकत्र होकर उक्त समयावधि में आचारित पापों का प्रायश्चित्त करता है । प्रवारणा की विधि बहुत कुछ जैन प्रतिक्रमण से मिलती है, बौद्ध परम्परा में भी जैन परम्परा के मास-कल्प के समान भिक्षुओं का चातुर्मासकाल के अतिरिक्त एक स्थान पर रुकना वर्जित माना गया है। बौद्ध परम्परा भी भिक्षु जीवन में सतत भ्रमण को आवश्यक मानती है। उसके अनुसार भी सतत भ्रमण के द्वारा जन-कल्याण और भिक्षु जीवन में अनासक्त वृत्ति का निर्माण होता है। जैन, परम्परा के पर्युषण-कल्प के समान बौद्ध परम्परा में भी चातुर्मास काल में एक स्थान पर रुककर धर्म की विशेष आराधना को महत्त्व दिया गया है । इस प्रकार भिक्षु जीवन के उपर्युक्त विधानों के संदर्भ में जैन और बौद्ध परम्पराओं में काफी निकटता है ।
वैदिक परम्परा और कल्पविधान --- जैन- परम्परा के दस कल्पों में कुछ का विधान वैदिक परम्परा में भी दृष्टिगोचर होता है । जैन- परम्परा के आचेलक्य कल्प के समान वैदिक परम्परा में भी संन्यासी के लिए या तो नग्न रहने का विधान है अथवा जीर्णशीर्ण अल्प वस्त्र धारण करने का विधान है । औदेशिक कल्प वैदिक परम्परा में स्वीकृत नहीं है, यद्यपि भिक्षावृत्ति को ही अधिक महत्त्व दिया गया है । उच्चकोटि के संन्यासियों के लिए सभी वर्गों के यहाँ की भिक्षा को ग्राह्य माना गया है । वैदिक परंपरा में शय्यातर और राजपिण्ड-कल्प का कोई विधान दिखाई नहीं दिया । वैदिक परम्परा में भी जैनपरम्परा के कृतिकर्म - कल्प के समान यह स्वीकार किया गया है कि दीक्षा की दृष्टि से ज्येष्ठ संन्यासी के आने पर उसके सम्मान में खड़ा होना चाहिए तथा ज्येष्ठ संन्यासियों को प्रणाम करना चाहिए। वैदिक परम्परा में अभिवादन के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के नियमों का विधान है, जिसकी विस्तृत चर्चा में जाना यहाँ संभव नहीं है । वैदिक परम्परा में जैन परम्परा के समान मुनि के लिए पंच महाव्रतों का पालन आवश्यक है, जिसकी तुलना व्रत -कल्प से कर सकते हैं । जैन - परम्परा की दो प्रकार की दीक्षाओं की तुलना वैदिक परम्परा में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम से की जा सकती है । यद्यपि यह स्मरण रखना चाहिए कि वैदिक परम्परा में संन्यासियों के सम्बन्ध में इतना विस्तृत
१. बुद्धिज्म, पृ० ७७-७८ । ३. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० २३७ - २४१ ।
२. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४९४ ।
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