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धमण-धर्म
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(९) मास कल्प-श्रमण के लिए सामान्य नियम यह है कि वह ग्राम में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि से अधिक न ठहरे । लेकिन महावीर ने श्रमण के लिए अधिक से अधिक एक स्थान पर एक मास तक ठहरने की अनुमति प्रदान की और एक मास से अधिक ठहरना निषिद्ध बताया । साध्वियों के लिए यह मर्यादा दो मास मानी गई है । यह मर्यादा चातुर्मास-काल को छोड़कर शेष आठ मास ही के लिए है । वस्तुतः सतत भ्रमण से ही जहां एक ओर अनासक्तवृत्ति बनी रहती है, वहीं दूसरी ओर अधिकाधिक जन संपर्क और जन कल्याण भी संभव होता है ।
१०. पर्युषण कल्प- चातुर्मास काल मे एक स्थान पर रहकर तप, संयम और ज्ञान की आराधना करना पर्युषण कल्प है। चातुर्मास काल में स्थित मुनि को इसके लिए विशेष प्रयत्न करना चाहिए ।
बौद्ध परम्परा और कल्पविधान-जैन परम्परा के दस कल्पों को प्रकारान्तर से बौद्ध परम्परा में भी खोजा जा सकता है। जैन परम्परा के आचेलक्य-कल्प का अर्थ यदि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार अल्प वस्त्र धारण किया जाता है तो वह बौद्ध परम्परा में भी स्वीकृत है । बौद्ध भिक्षु दीक्षित होने के समय ही यह निश्चय करता है कि मैं अल्प एवं जीर्ण वस्त्रों में ही संतुष्ट रहूँगा।' बुद्ध ने भिक्षु के लिए मर्यादा से अधिक वस्त्र रखने का निषेध किया है । जहाँ तक औद्देशिक कल्प का प्रश्न है बुद्ध ने केवल औद्देशिक प्राणिहिंसा से निर्मित मांस आदि के आहार को ही निषिद्ध माना है। सामान्य भोजन, वस्त्र-पात्र तथा आवास के सम्बन्ध में बुद्ध औद्देशिकता को स्वीकार नहीं करते हैं। उन्होंने उसे ऐसे भोजन, वस्त्र-पात्र एवं आवास को ग्रहण योग्य माना है । वे निमंत्रित भोजन को निषिद्ध नहीं मानते हैं । शय्यातर और राजपिण्ड-कल्प के सम्बन्ध में बौद्ध परम्परा में कोई नियम देखने में नहीं आया। कृतिकर्म कल्प के सम्बन्ध में जैन और बौद्ध परम्पराएँ समान दृष्टिकोण रखती हैं। बौद्ध परम्परा में भी दीक्षा-वय में ज्यष्ठ भिक्षु के आने पर उसके सम्मान में खड़ा होना तथा ज्येष्ठ भिक्षुओं को वंदन करना अनिवार्य है। इतना ही नहीं बुद्ध ने दीक्षावृद्ध श्रमणी के लिए भी छोटे-बड़े सभी भिक्षुओं को वन्दन करने का विधान किया है । भिक्षुणी के आठ गुरु धर्मों में (अट्ठगुरुधम्मा) में सबसे पहला नियम यही है ।२ जिस प्रकार जैन परम्परा में व्रत कल्प के रूप में पाँच महाव्रतों के पालन का विधान है उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी दस भिक्षु शीलों के पालन का विधान है। जैन परम्परा के ज्येष्ठ कल्प के समान बौद्ध परम्परा में भी दो प्रकार की दीक्षाओं का विधान है, जिन्हें श्रामणेर दीक्षा और उपसम्पदा कहा गया है। श्रामणेर दीक्षा परीक्षास्वरूप होती है और उसमें दस भिक्षु-शीलों की प्रतिज्ञा की जाती है। यह दीक्षा कोई भी भिक्षु दे
१. विनयपिटक-महावग्ग १।२।६।
२. विनयपिटक-चूलवग्ग १०।११२ ।
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