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श्रमण-धर्म
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प्रतिपादन नहीं है। प्रतिक्रमण-कल्प का एक विशिष्ट नियम के रूप में वैदिक परम्परा में कोई निर्देश नहीं है, यद्यपि प्रायश्चित्त की परम्परा वैदिक परम्परा में भी मान्य है। जहाँ तक चातुर्मासकाल को छोड़कर शेष समय में भ्रमण के विधान का प्रश्न है, जैन और वैदिक परम्पराएँ लगभग समान ही हैं। वैदिक परम्परा के अनुसार भी संन्यासी को आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर चार या दो महीने तक एक स्थान पर रुकना चाहिए और शेष समय गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रावि से अधिक न रुकते हुए भ्रमण करना चाहिए।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा के कल्प-विधान की बौद्ध और वैदिक परम्पराओं से बहुत कुछ समानता है, यद्यपि जैन परम्परा में जिस औद्देशिक कल्प पर अधिक जोर दिया जाता है, उसका विधान बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में नहीं मिलता है। इसका मूल कारण यह है कि जैन-परम्परा में अहिंसा के पालन के लिए जितनी सूक्ष्मता से विचार किया गया, इतनो सूक्ष्मता से उसके पालन का विचार बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में नहीं रखा गया। फिर भी मूल मन्तव्य की दृष्टि से उनमें बहुत अधिक दूरी नहीं है, यद्यपि यह निश्चित है कि जैन-परम्परा में मुनि-जीवन के नियमों की जो कठोरता है, वह बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में नहीं है । जैन-परम्परा में यह कठोरता उसके अहिंसा के सूक्ष्म विचार के कारण ही आयी है। अगले पृष्ठों में हम मुनि-जीवन के नियमों की चर्चा करते हुए इसे स्पष्टरूप में देख सकेंगे ।
जैन-परम्परा में भिक्षु-जोवन के सामान्य नियम-जैनपरम्परा में भिक्षु-जीवन के नियमों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है । उनमें कुछ नियम ऐसे हैं, जिनका भंग करने पर भिक्षु श्रमण-जोवन से च्युत हो जाता है । ऐसे नियमों में इक्कीस शबल दोष तथा बावन अनाचीर्ण प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सामान्य नियम ऐसे हैं, जिनका भंग करने से यद्यपि भिक्षु श्रमण-जीवन से च्युत तो नहीं होता फिर भी उसके सामान्य जीवन की पवित्रता मलिन होती है। नीचे हम इन विभिन्न नियमों की चर्चा करेंगे।
शबल दोष-शबल दोष जैन भिक्षु के लिए सर्वथा त्याज्य है । आचार्य अभयदेव के अनुसार जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है तथा चारित्र मलक्लिन्न होने के कारण छिन्न-भिन्न हो जाता है, वे कार्य शबल दोष हैं । जैनपरम्परा में शबल दोष इक्कीस हैं२-जैसे १. हस्त मैथुन करना, २. स्त्री-स्पर्श एवं मैथुन का सेवन करना, ३. रात्रि में भोजन करना एवं भिक्षा ग्रहण करना, ४. मुनि के
१. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४९१ । २. समवायांगटीका २१।१।
३. समवायांग, २१।१ ।
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