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________________ श्रमण-धर्म ३६३ बाहर खड़े होकर और जाड़े में भीगे वस्त्र धारण कर कष्ट सहन करना चाहिये । उसे खुली भूमि पर सोना चाहिए और रोग हो जाय तो भी चिंता नहीं करनी चाहिए | इस प्रकार वैदिक परम्परा में संन्यासी के लिए कष्ट - सहिष्णु होना आवश्यक है और इस सम्बन्ध में जैन तथा वैदिक परम्पराएँ समान दृष्टिकोण रखती हैं । फिर भी दोनों परम्पराओं में किंचित् अन्तर है । और वह यह है कि वैदिक परम्परा न केवल सहज भाव से उपस्थित हो जाने वाले कष्टों को सहन करने की बात कहती है, वरन् उससे भी आगे बढ़कर वह स्वेच्छापूर्वक कष्टों के आमन्त्रण को भी उचित समझती है । श्रमण कल्प जैन आचार-दर्शन में श्रमण के लिए दस कल्पों का विधान है । कल्प (कप्प ) शब्द का अर्थ है आचार-विचार के नियम । कल्प शब्द न केवल जैन परम्परा में आचार के नियमों का सूचक है वरन् वैदिक परम्परा में भी कल्प शब्द आचार के नियमों का सूचक है । वैदिक परम्परा में कल्पसूत्र नाम के ग्रन्थ में गृहस्थ और त्यागी ब्राह्मणों के आचारों का वर्णन है । जैन परम्परा में निम्न दस कल्प माने गये हैं - ( १ ) आचेलक्य कल्प, ( २ ) औद्देशिक कल्प, (३) शय्यातर कल्प, (४) राजपिण्ड कल्प, (५) कृतिकर्म कल्प, ( ६ ) व्रत कल्प, (७) ज्येष्ठ कल्प, (८) प्रतिक्रमण कल्प, ( ९ ) मास कल्प और (१०) पर्युषण कल्प | 3 (१) आचेलक्य कल्प - - आचेलक्य शब्द की व्युत्पत्ति अचेलक शब्द से हुई है | चेल वस्त्र का पर्यायवाची है, अतः अचेलक का अर्थ है वस्त्र रहित । दिगम्बर परम्परा के अनुसार आचेलक्य कल्प का अर्थ है मुनि को वस्त्र धारण नहीं करना चाहिए। श्वेताम्बर परम्परा अचेल शब्द को अल्पवस्त्र का सूचक मानती है और इसलिये उनके अनुसार आचेलक्य कल्प का अर्थ है कम से कम वस्त्र धारण करना । ( २ ) औद्देशिक कल्प - औद्देशिक कल्प का अर्थ यह है कि मुनि को उनके निमित्त बनाये गये, लाये गये अथवा खरीदे गये आहार, पेय पदार्थ, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण तथा निवासस्थान को ग्रहण नहीं करना चाहिये । इतना ही नहीं, किसी भी श्रमण अथवा श्रमणी के निमित्त बनाये गये या लाये गये पदार्थों का उपभोग सभी श्रमण और श्रमणियों के लिए वर्जित है । महावीर के पूर्व तक परम्परा यह थी कि जैन श्रमण अपने स्वयं के लिए बनाये गये आहार आदि का उपभोग नहीं कर सकता था । लेकिन वह दूसरे श्रमणों के लिए बनाये गये आहार आदि का उपभोग कर सकता था । १. मनुस्मृति, ६।२३, ३४, देखिए धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४८५ । ३. मनुस्मृति, ६।४३, ४६, देखिए धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४९४ । ३. (अ) भगवती आराधना, ४२३ । (ब) मूलाचार - समयसाराधिकार ११८ । (स) पंचाशक १७।६-४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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