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________________ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध परम्परा और परीषह - भगवान् बुद्ध ने भी भिक्षु-जीवन में आने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहन करने का निर्देश दिया है । अंगुत्तरनिकाय में वे कहते हैं - भिक्षुओ जो दुःखपूर्ण, तीव्र, प्रखर, कटु, प्रतिकूल, बुरी, प्राणहर शारीरिक वेदनाएँ हों उन्हें सहन करने का प्रयत्न करना चाहिए ।" सुत्तनिपात में भी वे कहते हैं कि धीर, स्मृतिवान्, संयत आचरणवाला भिक्षु डसने वाली मक्खियों से, सर्पों से, पापी मनुष्यों के द्वारा जानेवाली पीड़ा से, तथा चतुष्पदों से भयभीत न हो। दूसरी सभी बाधाओं का सामना करे । रोग-पीड़ा, भूख-वेदना तथा शीत-उष्ण को सहन करे । अनेक प्रकार से पीड़ित होने पर भी वीर्य तथा पराक्रम को दृढ़ करे ।" संयुत्तनिकाय में भिक्षु के सत्कार परीषह के सम्बन्ध में कहा गया है कि जिस प्रकार केले का फल केले को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सत्कार - सम्मान कापुरुष को नष्ट कर देता है । अतः सत्कार पाकर भिक्षु प्रसन्न न हो |13 ३६२ इस प्रकार बौद्ध परम्परा में भी भिक्षु का कष्ट सहिष्णु होना आवश्यक है । इतना ही नहीं, बुद्ध ने कष्ट सहिष्णुता के लिए परीषह शब्द का प्रयोग भी किया है । फिर भी परीषह के सम्बन्ध में जैन और बौद्ध परम्पराओं में थोड़ा अन्तर है । जैन परम्परा में परीषह सहन करना निर्वाणमार्ग में एक साधक तत्त्व ही समझा गया है । जबकि बौद्ध परम्परा उसे निर्वाण मार्ग का बाधक तत्त्व समझती है और उन्हें दूर करने का निर्देश भी देती है । बौद्ध आचार्यों ने परीषह ( परिस्सया ) का अर्थ बाधा ही किया है । सुत्तनिपात में बुद्धवचन है कि निर्वाण की ओर जानेवाले मार्ग में कितनी ही बाधाएँ ( परिस्सया ) हैं । भिक्षु प्रज्ञापूर्वक कल्याणरत हो, उन बाधाओं को दूर करे । प्रकार बुद्ध परीषह सहन करने की अपेक्षा उसे दूर करना उचित समझते हैं । परीषह के मूल मन्तव्य की दृष्टि से तो दोनों ही परम्पराएँ समान हैं । दोनों में मात्र दृष्टिकोण का ही अन्तर है । ཞ इस वैदिक परम्परा और परोषह - वैदिक परम्परा में भी मुनि के लिए कष्ट सहिष्णु होना आवश्यक है । वैदिक परम्परा तो यहाँ तक विधान करती है कि मुनि को जानबूझकर अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने चाहिए । उसे कठिन तपस्या करनी चाहिए और अपने शरीर को भांतिभाँति के कष्ट देकर सब कुछ सह सकने का अभ्यासी बने रहना चाहिये | मनु का कहना है कि वानप्रस्थी को पंचाग्नि के बीच खड़े होकर, वर्षा में १. अंगुत्तरनिकाय, ३।४९ । ३. संयुक्त निकाय, १।६।१२ । ५. वही, ५४।६, १५ । Jain Education International २. सुत्तनिपात, ५४।१०-१२ । ४. सुत्तनिपात ५४६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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