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________________ श्रमण-धर्म ३६१ १०. निषद्या परीषह - स्वाध्याय आदि के हेतु एकासन से बैठना पड़े अथवा बैठने के लिए विषम भूमि उपलब्ध हो तो भी मन में दुःखित न होकर उस कष्ट को सहन करे । ११. शय्या परीषह — ठहरने अथवा सोने के लिए विषम भूमि हो तथा तृण पराल आदि भी उपलब्ध न हो तो उस कष्ट को सहन करे और श्मशान, शून्य गृह या वृक्षमूल में ही ठहर जावे । १२. आक्रोश परीषह - यदि कोई भिक्षु को कठोर एवं कर्कश शब्द कहे अथवा अपशब्द कहे तो भी उन्हें सहन कर उसके प्रति क्रोध न करे । १३. वध परीषह यदि कोई मुनि को लकड़ी आदि से मारे अथवा अन्य प्रकार से उसका वध या ताड़न करे तो भी उस पर समभाव रखे । - १४. याचना परीषह -- भिक्षावृत्ति में सम्मान को ठेस लगती है तथा आवश्यक वस्तुएँ सुलभता से प्राप्त नहीं होती हैं ऐसा विचार कर मन में दुःखी न हो, वरन् मुनि मर्यादा का पालन करते हुए भिक्षावृत्ति करे । १५. अलाभ परीषह - वस्त्र, पात्र आदि सामग्री अथवा आहार प्राप्त नहीं होने पर भी मुनि समभाव रखे और तद्जन्य अभाव के कष्ट को सहन करे । १६. रोग परीषह - शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर भी भिक्षु चिकित्सा के सम्बन्ध में अधीर न होकर उस रोग की वेदना को समभावपूर्वक सहन करे । १७. तृण परीषह - तृण आदि की शय्या में सोने से तथा मार्ग में नंगे पैर चलने से तृण या कांटे आदि के चुभने की वेदना को समभाव से सहन करे । १८ - मल परीषह- वस्त्र या शरीर पर पसीने एवं धूल आदि के कारण मैल जम जावे तो भी उद्विग्न न होकर उसे सहन करे । १९. सत्कार परीषह - जनता द्वारा मान-सम्मान के प्राप्त होने पर भी प्रसन्न या खिन्न न होकर समभाव रखे । २०. प्रज्ञा परीषह - भिक्षु के बुद्धिमान् होने के कारण लोग आकर उससे विवादादि करें तो भी खिन्न होकर यह विचार नहीं करे कि इससे तो अज्ञानी होना अच्छा था । २१. अज्ञान परीषह -- यदि भिक्षु की बुद्धि मन्द हो और शास्त्र आदि का अध्ययन न कर सके तो भी खिन्न नहीं होते हुए अपनी साधना में लगे रहना चाहिए । २२. दर्शन परीषह —— अन्य सम्प्रदायों और उनके महन्तों का आडम्बर देखकर यह विचार नहीं करना चाहिए कि देखो इनकी कितनी प्रतिष्ठा हैं और शुद्ध मार्ग पर चलते हुए भी मेरी कोई प्रतिष्ठा नहीं है । इस प्रकार आडम्बरों को देखकर उत्पन्न हुई श्रद्धा को मिटाना दर्शन परीषह है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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