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________________ ३६० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन में भी कष्टों को सहन किया जाता है, लेकिन तपश्चर्या और परीषह में अन्तर है । तपश्चर्या में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है, जबकि परीषह में स्वेच्छा से कष्ट सहन नहीं किया जाता, वरन् मुनि जीवन के नियमों का परिपालन करते हुए आकस्मिक रूप से यदि कोई संकट उपस्थित हो जाता है तो उसे सहन किया जाता है । कष्टसहिष्णुता मुनि-जीवन के लिए आवश्यक है, क्योंकि यदि वह कष्ट - सहिष्णु नहीं रहता है तो वह अपने नैतिक पथ से कभी भी विचलित हो जायेगा । जैन मुनि के जीवन में आने वाले कष्टों का विवेचन उत्तराध्ययन और समवायांग में है । जैन परम्परा में २२ परीषह माने गए हैं - १ १. क्षुधा परीषह - भूख से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी भिक्षु नियम विरुद्ध आहार ग्रहण न करे, वरन् समभावपूर्वक भूख की वेदना सहन करे । २. तृषा परीषह - प्यास से जल न पिये वरन् प्यास की वेदना सहन करे । व्याकुल होने पर भी मुनि नियम के प्रतिकूल सचित्त ३. शीत परीषह - वस्त्राभाव या वस्त्रों की हो तो भी आग से ताप कर अथवा मुनि-मर्यादा के की वेदना का निवारण नहीं करे । ४. उष्ण परोषह — ग्रीष्म ऋतु में गर्मी के कारण शरीर में स्नान या पंखे आदि के द्वारा हवा करके गर्मी को शांत करने का ५. दंश-मशक परीषह — डांस, मच्छर आदि के काटने के तो भी उन पर क्रोध न करे, उन्हें त्रास न दे, वरन् उपेक्षाभाव रखे । न्यूनता के कारण शीत-निवारण न विरुद्ध शय्या को ग्रहण कर उस शीत ८. स्त्री परोषह - स्त्री संग को स्त्री-संसर्ग की इच्छा न करे और परीषह समझना चाहिए । ६. अचेल परीषह — वस्त्रों के अभाव एवं न्यूनता की स्थिति में मुनि वस्त्राभाव की चिन्ता न करे और न मुनि-मर्यादा के विरुद्ध वस्त्र ग्रहण ही करे । Jain Education International व्याकुलता हो तो भी यत्न न करे । ७. अरति परीषह —-मुनि - जीवन में सुख-सुविधाओं का अभाव है इस प्रकार का विचार न करे । संयम में अरुचि हो तो भी मन लगाकर उसका पालन करे । कारण दुःख उत्पन्न हो आसक्ति, बन्धन और पतन का कारण जानकर उनसे दूर रहे । साध्वियों के संदर्भ में यहाँ पुरुष ९. चर्या - परीषह - पदयात्रा में कष्ट होने पर भी चातुर्मास काल को छोड़कर गाँव एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि से अधिक न रुकता हुआ सदैव भ्रमण करता रहे । मुनि के लिए एक स्थान पर मर्यादा से अधिक रुकना निषिद्ध है । ४. देखिए — उत्तराध्ययन अध्ययन २, समवायांग, २२।१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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